Story of Jatindra Nath Das : वो दिन था 13 सितंबर 1929...लाहौर में बारिश के बाद मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू तैर रही थी लेकिन वहां के मशहूर अनारकली बाजार (Anarkali Bazaar Lahore) में एक भी दुकान नहीं खुली थी...वो भी तब जब वहां लोगों का भारी हुजूम उमड़ा हुआ था. दरअसल वहां मौजूद भीड़ उस शख्स को देख रही थी जो नीचे जमीन पर गुलाब की पंखुड़ियों से बने बिस्तर पर बेजान लेटा हुआ था. उसका शरीर क्या बस ढांचा कह लीजिए...क्योंकि 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद शरीर में कुछ बचा नहीं था.
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हम बात कर रहे हैं जतीन्द्रनाथ दास (Jatindra Nath Das) की...जिन्हें भगत सिंह जतिन दा कहकर बुलाया करते थे. वो अंग्रेजों के जुल्मों के खिलाफ जेल में शहीद होने वाले देश के पहले अनशनकारी थे और आज ही के दिन 13 जुलाई, 1929 को उन्होंने लाहौर सेंट्रल जेल (Lahore Central Jail) में उस ऐतिहासिक भूख हड़ताल की शुरुआत की थी जिसने पूरी अंग्रेजी सत्ता को हिला कर रख दिया...
जतिन-दा का जन्म 27 अक्टूबर, 1904 को कोलकाता में हुआ था. जब वे महज नौ साल के थे तभी उनके सिर से माता का साया उठ गया...उनके पिता बंकिम बिहारी दास (Bankim Bihari Das) इलाके में प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. मात्र 16 साल की उम्र में युवा जतिन महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े. वे इस आन्दोलन में जेल भी गए लेकिन जब वे जेल से छूटे तो उन्होंने देखा कि गांधीजी ने चौरी-चौरा काण्ड के नाम पर आन्दोलन वापस ले लिया है. जतिन को ठगा-सा महसूस हुआ.
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इसी मनोदशा में वे क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल (Sachindra Nath Sanyal) द्वारा बनाए गए संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (Hindustan Republican Association) यानि HRA में शामिल हो गए. HRA का मकसद अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह छेड़ने का था. जतिन HRA के साथ पूरी शिद्दत से जुड़ गए.
जतिन ने राजनैतिक डकैतियों द्वारा HRA के लिए धन भी इकठ्ठा किया लेकिन बंगाल आर्डिनेंस (The Bengal Criminal Law Amendment Ordinance of 1924) नामक एक काले कानून की मदद से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. वे जेल गए...जहां अंग्रेज जेल अधिकारियों के अत्याचार के खिलाफ जतिन ने पहली बार 21 दिनों की भूख हड़ताल की. मजबूरन अधिकारियों को अपने रवैये में बदलावा लाना पड़ा और जतिन को भी रिहाई मिल गई.
साल 1928 की 'कोलकाता कांग्रेस' में जतिन 'कांग्रेस सेवादल' में नेताजी सुभाषचंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) के सहायक के तौर पर काम किया. वहीं उनकी भगत सिंह (Bhagat Singh) से भेंट हुई और भगत सिंह के अनुरोध पर बम बनाने के लिए आगरा गए.
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8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त (Bhagat Singh and Batukeshwar Dutt) ने जो बम केन्द्रीय असेंबली (Central Assembly) में फेंके, वे जतिन के द्वारा ही बनाये हुए थे. 14 जून, 1929 को वे गिरफ़्तार कर लिए गए और उन पर 'लाहौर षड़यंत्र केस' (Lahore Conspiracy Case) में मुकदमा चला.
यहीं लाहौर जेल में जतिन दा ने अपने जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ी. दरअसल, लाहौर जेल में क्रांतिकारियों के साथ बहुत दुर्व्यवहार होता था. उन्हें चोर-डकैतों की तरह सामान्य अपराधियों के साथ रखा गया. उन्हें सड़ा-गला खाना दिया जाता और पहनने के लिए मैले-कुचले कपड़े दिए जाते. पढ़ने के लिए किताबें या अखबार मिलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था.
इसी के विरोध में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जेल में ही भूख हड़ताल (Bhagat Singh and Batukeshwar Dutt Hunger Strike in Jail) शुरू कर दी. खास बात ये है कि शुरू में जतिन-दा ने इसका विरोध किया क्योंकि उनका अपना अनुभव था कि भूख हड़ताल बहुत कठिन संघर्ष होता है और इसमें बिना जान दिए जीत संभव नहीं है लेकिन जब सर्वसम्मति से क्रांतिकारियों ने भूख हड़ताल करने का फैसला किया तो 13 जुलाई, 1929 को जतिन-दा भी इसमें कूद पड़े.
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इस भूख हड़ताल की चर्चा सारे देश में फ़ैल गई और दुनिया के कई हिस्सों से इन क्रांतिवीरों को समर्थन मिला.... दस दिन के अन्दर इन लोगों की हालत खराब होने लगी. अब सरकार जोर-जबरदस्ती पर उतर आई. जेल के डॉक्टर ने बलवान पुलिसवालों की मदद से जबरदस्ती क्रांतिकारियों की नाक में रबड़ की नली डालकर दूध पिलाना शुरू कर दिया.
इसी दौरान 26 जुलाई को आठ-दस पुलिसवालों ने जतिन को दबोच लिया और नली के सहारे पेट में दूध डालना शुरू किया. झूमाझटकी में दूध पेट की बजाए फेफड़ों में चला गया और जतिन-दा छटपटा उठे. उनके साथियों ने बहुत हल्ला किया लेकिन जब डॉक्टर पूरे आधे घंटे बाद दवाई लेकर आया तो जतिन ने दवाई लेने से भी साफ़-साफ़ मना कर दिया. वे दृढ़ता से अपने साथियों से बोले- अब मैं उनकी पकड़ में नहीं आऊंगा.
जतिन दा की हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी. दूसरी तरफ क्रांतिकारियों की बहादुरी के किस्से जेल से बाहर पहुंच रहे थे और राजनैतिक बंदियों के अधिकार एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया. कांग्रेसी नेताओं के बार-बार आह्वान करने पर भी जतिन-दा व उनके साथियों ने अपनी भूख हड़ताल नहीं तोड़ी. मजबूरन सरकार ने एक कमेटी का गठन किया लेकिन भूख हड़ताल जारी रही. भगत सिंह के कहने पर भी जतिन-दा ने दवाई नहीं ली. सरकार उनकी सशर्त ज़मानत के लिए तैयार हो गयी लेकिन स्वाभिमानी जतिन ने इस प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया. धीरे-धीरे उनके बोलने और देखने की शक्ति भी चली गयी.
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फिर आया 13 सितंबर का दिन. जतिन की भूख हड़ताल को 63 दिन हो गए थे. पूरे देश की नज़रें उनपर थीं. उन्होंने अपने छोटे भाई किरन और साथी विजय कुमार सिन्हा (Bejoy Kumar Sinha) से ‘एकला चलो रे’ गाने का अनुरोध किया. दोनों ने आंखों में आंसू लिए इस वीर योद्धा की इच्छा का सम्मान किया. दोपहर 1 बजकर 5 मिनट पर जतिन-दा ने अंतिम सांस ली.
इस महान शहीद के सम्मान में पूरे पंजाब में बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए और उनके पार्थिव शरीर को ट्रेन से उनके छोटे भाई कोलकत्ता लेकर आये. रास्ते भर में हजारों की संख्या में हर स्टेशन पर जनता ने अपने महानायक को विदाई दी. जतिन-दा के दाह संस्कार में डेढ़ लाख लोग शामिल हुए. खुद सुभाषचन्द्र बोस ने जतिन दा के पार्थिव शरीर को कोलकाता लाने के 3 हजार रुपए में ट्रेन को बुक किया था. कोलकाता में सुभाष ने ही उनके पार्थिव शरीर की आगवानी की.
जतिन को मिले इस अभूतपूर्व जन समर्थन के बाद ब्रिटिश प्रशासन अंदर तक हिल गया. इसी के बाद किसी भी क्रांतिकारी की मौत के बाद उनका पार्थिव शरीर इस तरीके से जाने की अनुमति नहीं दी गई.
अब चलते-चलते 13 जुलाई को घटी दूसरी अहम घटनाओं पर भी निगाह मार लेते हैं...
1977: देश की जनता पार्टी सरकार (Janata Party Government) ने भारत रत्न सहित अन्य नागरिक सम्मान देना बंद कर दिया
1998: भारत के लिएंडर पेस ने पहला ए.टी.पी. ख़िताब (Leander Paes ATP Tour) जीता
2000: फिजी में महेन्द्र चौधरी (Mahendra Chaudhry) समेत 18 बंधक रिहा
2011: देश की आर्थिक राजधानी मुंबई तिहरे बम धमाकों (2011 Mumbai bombings) से दहल उठी