“दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल.”
कवि प्रदीप के लिखे इस गीत में आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के संघर्ष को बखूबी पिरोया गया है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि 15 अगस्त 1947 को देश जब आज़ादी के जश्न में डूबा हुआ था तब “साबरमती का यह संत” उस जश्न में शामिल नहीं हुआ था?
मगर बापू उस जश्न में शामिल क्यों नहीं हुए? उस वक्त वो कहां थे और क्या कर रहे थे? इस सवाल का जवाब ढूंढने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि देश को आज़ादी की ख़ुशी के साथ बंटवारे का ग़म भी मिला था. देश सांप्रदायिक दंगों से जूझ रहा था और हिंदू-मुसलमान आपसी अविश्वास से.
ऐसे में बापू ने आज़ादी के जश्न में शरीक़ होने से ज़्यादा ज़रूरी सांप्रदायिक एकता कायम करना समझा और इसीलिए वो पहुंच गए बंगाल के नोआखली जो मौजूदा वक्त में बांग्लादेश में है.
गांधी जी असल में 9 अगस्त, 1947 को ही कोलकाता पहुंच गए थे जहां वह एक मुस्लिम बस्ती में रहते हुए भूख हड़ताल कर रहे थे. इसके बाद उन्होंने 13 अगस्त से लोगों से मिलकर सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने की कोशिशें शुरू कर दी थी.
यानी गांधी जी आज़ादी की पहली सुबह उत्सव मनाने की बजाय भूख हड़ताल पर बैठे हुए बंटवारे से लगी आग बुझाने में लगे थे.
पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने एक साझा चिट्ठी लिखकर उनसे आज़ादी के जश्न में शामिल होने का आग्रह भी किया था लेकिन वह अपने फैसले से नहीं डिगे. उन्होंने उस चिट्ठी के जवाब में लिखा था, “आज जब देश में हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हैं तब मैं जश्न कैसे मना सकता हूं?”
यही वजह है कि 15 अगस्त 1947 की सुबह जब पंडित नेहरू ने लाल किले पर राष्ट्रध्वज फहराया तो कई स्वतंत्रता सेनानी वहां मौजूद थे लेकिन गांधी जी नहीं.