Khudiram Bose Freedom Fighter: खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को हुआ था. खुदीराम (Khudiram Bose) को 11 अगस्त 1908 को फांसी दी गई थी. वह बंगाल प्रेसीडेंसी (Bengal Presidency) के एक भारतीय क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारत के ब्रिटिश शासन का विरोध किया था. मुजफ्फरपुर षडयंत्र मामले (Muzaffarpur Conspiracy Case) में उनकी भूमिका के लिए उन्हें मौत की सजा दी गई. वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे कम उम्र के शहीदों में से एक बन गए. आइए जानते हैं खुदीराम बोस की कहानी इस एपिसोड में...
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साल 1926 में बांग्लादेश के राष्ट्रकवि नजरूल इस्लाम (Nazrul Islam) ने एक पत्रिका में ऐसा लेख लिखा...जो किसी को भी झकझोर देने के लिए काफी है...उन्होंने लिखा- 'ओ माताओं ! क्या तुम उस दुस्साहसी बालक के बारे में सोच सकती हो जो तुम्हारे अपने बेटे से अलग है. क्या तुम एक बिन मां के बच्चे को फांसी पर चढ़ते देख सकती हो ? तुम अपने बेटे की मंगलकामना के लिए तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करती हो, किंतु क्या तुमने उन देवताओं से प्रार्थना की कि वे खुदीराम की रक्षा करें? क्या इसके लिए लज्जा अनुभव करती हो? मुझे मालूम है तुम्हारे पास मेरे सवालों का जवाब नहीं है. हम एक मांग लेकर तुम्हारे दरवाजे पर खड़े हैं. हम अपने खुदीराम को वापस चाहते हैं, उसे अपने घर की सुख-सुविधाओं में कैद न करो, बाहर निकलने दो.
दरअसल नजरूल अपने लेख में जिस लड़के का जिक्र कर रहे हैं उनका पूरा नाम खुदीराम बोस था और आज ही के दिन 11 अगस्त 1908 को उन्हें महज 18 साल 8 महीने 8 दिन की उम्र में फांसी पर चढ़ाया गया था. जानकार बताते हैं कि फांसी पर चढ़ने वाले वे सबसे कम उम्र के युवक थे.
आज हम बात करेंगे उस खुदीराम बोस की जिनकी अस्थियों की राख को ताबीज में भरकर माएं अपने बच्चों को पहना देती थीं. फांसी के बाद वे इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिनके किनारे पर 'खुदीराम' लिखा होता था.
चलिए कहानी को शुरू से शुरू करते हैं. भगत सिंह (Bhagat Singh) तब एक साल के रहे होंगे जब खुदीराम बोस ने उन्हीं की तरह हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था वो भी शहीद-ए-आजम से भी कम उम्र में. भगत सिंह जब फांसी के फंदे पर झूले तब उनकी उम्र थी 23 साल थी औऱ जब खुदीराम बोस को फांसी हुई तो उनकी उम्र थी 18 साल 8 महीने.
यहां हमारा मकसद भगत सिंह के योगदान को कम करके आंकना नहीं है बल्कि उनके सहारे खुदीराम की महान शहादत को बताना है.
खुदीराम का जन्म 3 दिसंबर, 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में हुआ था. उनके पिता त्रिलोक्यनाथ बसु नाराजोल स्टेट के तहसीलदार थे. उनके पैदा होते ही अकाल मृत्यु को टालने के लिए प्रतीकस्वरुप उन्हें किसी को बेच दिया गया था.
उस दौर और इलाके के चलन के मुताबिक बहन अपरूपा ने तीन मुठ्ठी खुदी यानी चावल के छोटे-छोटे टुकड़े देकर अपना भाई वापस ले लिया. चूंकि खुदी के बदले परिवार में वापसी हुई , इसलिए नाम दिया खुदीराम। खुदीराम तो बच गए, लेकिन उनके छह साल का होने तक माता-पिता दोनों का साया सिर से उठ गया. मासूम बालक को हाटगछिया में रह रही उनकी बड़ी दीदी ने पाला-पोसा.
वक्त धीरे-धीरे बीत रहा था. तभी साल 1905 में बंग भंग विरोधी आंदोलन खुदीराम के जीवन में नया मोड़ लेकर आया. आठवीं कक्षा के विद्यार्थी खुदीराम विभाजन के विरोध में सक्रिय हो गए. पढ़ाई से उनका मन उचट चुका था. खुदीराम ने तमाम लोगों के साथ जगन्नाथ मंदिर में बंग विभाजन रद्द न होने तक विदेशी वस्तुओं को हाथ न लगाने की शपथ ली. इसी दौरान वह शिक्षक सत्येन बोस के सम्पर्क में आए जो उन दिनों मिदनापुर के युवकों को क्रांतिकारी गतिविधियों से जोड़ने में लगे हुए थे.
उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते 28 फरवरी 1906 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन वे कैद से भाग निकले हालांकि लगभग 2 महीने बाद अप्रैल में वे फिर से पकड़े गए. 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया. अंग्रेज बहादुरों को लगा कि बालक छोटा है और जेल से निकलने के बाद सुधर जाएगा. लेकिन हुआ उसका उल्टा.
6 दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, परंतु गवर्नर बच गया. इसके बाद सन् 1908 में खुदीराम ने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर भी बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले. जाहिर है उस दौर में खुदीराम अंग्रेजों के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन गए थे. अंग्रेज उन्हें खोज रहे थे और खुद खुदीराम नए-नए प्लान बना रहे थे. उनके संगठन ने तय किया है कि मुजफ्फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड का खात्मा करना है. किंग्सफोर्ड बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा देने के लिए कुख्यात था.
तय प्लान के मुताबिक खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी मुजफ्फरपुर पहुंचे. दोनों मुजफ्फरपुर की एक धर्मशाला में 8 दिनों तक रहे और जज किंग्सफोर्ड के गतिविधियों की रेकी की. 30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्सफोर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे. रात के साढे़ आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे. उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी. खुदीराम बोस और उनके साथी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उसपर बम फेंका, जिससे उसमें सवार मां-बेटी की मौत हो गई. वे दोनों यह सोचकर भाग निकले कि किंग्सफोर्ड मारा गया है.
पुलिस से बचने के लिए दोनों ने अलग-अलग राह पकड़ ली. एक स्टेशन में पुलिस दरोगा को प्रफुल चाकी पर शक हो गया और उन्हें घेर लिया गया. खुद को घिरा देख प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली. इसी तरह से खुदीराम भी मौक-ए-वारदात से बीस मिल दूर पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए. इसके बाद उन पर केस चला और इस मुकदमे का फैसला सिर्फ 5 ही दिन में हो गया. 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें मौत की सजा सुनाई गई. फैसला देने के बाद जज ने उससे पूछा- क्या तुम इस फैसले का मतलब समझ गए हो ? इस पर खुदीराम ने जवाब दिया- हां, मैं समझ गया, मेरे वकील कहते हैं कि मैं बम बनाने के लिए बहुत छोटा हूं. अगर आप मुझे मौका दें तो मैं आपको भी बम बनाना सिखा सकता हूं.
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कहा जाता है कि फांसी की सजा सुनाए जाने और फंदे पर चढ़ने से पहले उनका वजन दो पाउंड बढ़ गया था. 11 अगस्त की सुबह 6 बजे खुदीराम को फांसी दे दी गई. वहां मौजूद लोगों के अनुसार फांसी मिलने तक वह एक बार भी न घबराए थे और न ही कोई शिकन थी.
चलते-चलते 11 अगस्त को हुई दूसरी घटनाओं पर भी निगाह मार लेते हैं.
1948: लंदन में समर ओलंपिक की शुरुआत हुई
1961: दादर नगर हवेली का भारत में विलय हुआ और इसे केंद्रशासित प्रदेश बनाया गया
2007: मोहम्मद हामिद अंसारी (Hamid Ansaroi) भारत के 13वें उपराष्ट्रपति बने
2020 - प्रसिद्ध उर्दू शायर और हिन्दी फिल्मों के गीतकार राहत इंदौरी (Rahat Indori) का निधन