दिल्ली का सुप्रीम बॉस कौन होगा, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अंतिम मुहर लगा दी है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि चुनी हुई सरकार को फैसला लेने का हक है. इसलिए ट्रांसफर पोस्टिंग और अधिकारियों पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण होगा. जबतक नियंत्रण नहीं, अधिकारी सरकार की नहीं सुनेंगे. इसे केंद्र सरकार को मिले झटके के रूप में देखा जा रहा है. आपको हम बताते हैं कि आखिर उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच पावर की लड़ाई कब से शुरू हुई और इसके पीछे की वजह क्या है.
दिल्ली विधानसभा के साथ एक केंद्र शासित प्रदेश भी (union territory)है. भारत में 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं. इनमें से दिल्ली, पुडुचेरी और जम्मू-कश्मीर के लिए केंद्र शासित प्रदेश होने के बावजूद विधानसभा और राज्य सरकार की व्यवस्था की गई है.
दिल्ली में सत्ता के तीन केंद्र हें - एलजी, सीएम एंड एमसीडी
दिल्ली का कामकाज इन्हीं तीनों जगहों से चलता है. दिल्ली विधानसभा और दिल्ली नगर निगम में आम आदमी पार्टी सत्ता में है. वहीं उपराज्यपाल सुप्रीम बॉस के रूप में काम करते हैं. दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच इसी बात पर तनातनी चलती है. जिसपर अब सुप्रीम कोर्ट ने लगभग विराम लगा दिया है. अब देखना दिलचस्प होगा कि राज्य की शासन व्यवस्था सहमति से चलती है या कोई नया मुद्दा जन्म लेता है.
संविधान के 69वें संशोधन से विवाद की शुरुआत
संविधान के 69वें संशोधन अधिनियम, 1991 से दिल्ली की सियासत बदल गई. इस संशोधन से केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली की राजनीति को एक नया आयाम मिला. इसके जरिए संघ राज्यक्षेत्र दिल्ली को विशेष दर्जा दिया गया. इसे दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र ( National Capital Territory of Delhi) नाम दिया गया. संविधान में दो नए अनुच्छेद 239 AA और 239 AB जोड़े गए. अनुच्छेद 239 AA के जरिए दिल्ली के लिए राष्ट्रपति से नियुक्त प्रशासक की व्यवस्था की गई और इसे उपराज्यपाल (Lieutenant Governor) कहा गया. साथ ही एनसीटी दिल्ली के लिए एक विधानसभा और मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गई. यानी संविधान के अनुच्छेद 239 AA के जरिए ही दिल्ली सरकार बनने का प्रावधान किया गया.इससे पहले दिल्ली में महानगरीय परिषद और कार्यकारी परिषद थी.
1991 में बना जीएनसीटी दिल्ली कानून
69वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए संसद से दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम 1991 (GNCT Delhi Act 1991) बनाया गया. इसमें दिल्ली विधानसभा की संरचना, विधानसभा से विधेयक पारित करने और कानून बनाने की प्रक्रिया के साथ ही मंत्रिपरिषद से जुड़े सारे प्रावधान किए गए. इसी कानून में ये भी तय कर दिया गया कि दिल्ली सरकार और एलजी के बीच किसी मुद्दे पर टकराव होने की स्थिति में एलजी का फैसला अंतिम होगा. इससे साफ है कि 69वें संविधान संशोधन और जीएनसीटी दिल्ली कानून 1991 के जरिए दिल्ली सरकार की बजाय उपराज्यपाल को ज्यादा अधिकार दिए गए. एलजी के ही फैसले को आखिरी माना गया.
टकराव की मूल वजह है अनुच्छेद 239 AA
उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच टकराव का मूल कारण संविधान का अनुच्छेद- 239 AA ही रहा है. इसमें कहा गया है कि मतभेद की स्थिति में उपराज्यपाल का फैसला अंतिम होगा. दिल्ली सरकार पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और भूमि को छोड़कर दूसरे विषयों पर कोई फैसला ले सकती है, लेकिन ये निर्णय भी दिल्ली सरकार संसद से पारित कानूनों के तहत ही ले सकती है. इस अनुच्छेद के मुताबिक केन्द्र शासित प्रदेश दिल्ली के कार्यकारी प्रमुख (executive head) मुख्यमंत्री नहीं हैं, बल्कि ये हक़ उपराज्यपाल के पास है.
2015 से एलजी और दिल्ली सरकार में बढ़ा टकराव
दरअसल 2015 से आम आदमी पार्टी लगातार दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने और दिल्ली सरकार को ज्यादा अधिकार देने की भी मांग कर रही है. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि निर्वाचित सरकार होने के बावजूद दिल्ली सरकार को अधिकारों के मामले में सीमित कर दिया गया है. पहले उपराज्यपाल नजीब जंग, फिर उसके बाद अनिल बैजल और अब वर्तमान उपराज्यपाल (LG) विनय कुमार सक्सेना के साथ दिल्ली सरकार का अधिकारों को लेकर टकराव बढ़ता जा रहा था.
अदालत में पहुंची अधिकारों की लड़ाई
दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर और दिल्ली के मुख्यमंत्री के बीच के टकराव ने कानूनी विवाद को जन्म दे दिया. कानूनी सवाल के तहत पूरा विवाद एलजी की प्रशासमिक शक्तियों और दिल्ली सरकार के इर्द-गिर्द घूमते रहा है. निर्वाचित विधायिका होने के बावजूद दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है. उसकी एक खास स्थिति है और इसी वजह से दिल्ली सरकार और एलजी में अधिकारों को लेकर भ्रम का मामला हाईकोर्ट पहुंचा. उस वक्त मुख्य सचिव की नियुक्ति और भ्रष्टाचार की जांच की अनुमति पर एलजी की सहमति नहीं लेने पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और तत्कालीन उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच अनबन जोरों पर था. इन मामले में उठाए गए मुद्दों पर 2015 में दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई हुई.
अगस्त 2016 में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला
दिल्ली हाईकोर्ट ने 4 अगस्त 2016 को दिए फैसले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया. हाईकोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 239AA के तहत विधानसभा बनने के बावजूद दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश बना हुआ है. हाईकोर्ट ने आगे कहा कि दिल्ली के लिए संविधान में जोड़े गए विशेष प्रावधान अनुच्छेद 239 के प्रभाव को खत्म नहीं करते हैं. केंद्र शासित प्रदेशों के लिए बने अनुच्छेद 239 उपराज्यपाल (LG) को अपनी मंत्रिपरिषद से स्वतंत्र रूप से काम करने का अधिकार देता है. इसके परिणामस्वरूप एलजी की सहमति के बिना दिल्ली सरकार की ओर से शुरु किए गए सभी जांच (enquiries) को हाईकोर्ट ने अवैध करार दिया. इनमें वाहनों को सीएनजी परमिट जारी करने की जुड़ी जांच, दिल्ली और जिला क्रिकेट संघ (DDCA) की वित्तीय जांच जैसे मामले भी शामिल थे. दिल्ली हाईकोर्ट के इस आदेश से दिल्ली सरकार के सभी प्रशासनिक फैसलों के लिए उपराज्यपाल की सहमति अनिवार्य हो गई. दिल्ली हाईकोर्ट के इस आदेश के मुताबिक उपराज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासनिक प्रमुख हैं और उपराज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं हैं.
जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. फरवरी 2017 में सुप्रीम कोर्ट के दो सदस्यीय बेंच ने इस मामले को 5 सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेज (refer) दिया. उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों को लेकर टकराव पर 4 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट के 5 सदस्यीय बेंच का फैसला आया. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया. तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा की अगुवाई वाले बेंच ने सर्वसम्मति से ये माना कि मुख्यमंत्री ही दिल्ली के के कार्यकारी प्रमुख (executive head)हैं. संविधान पीठ ने फैसला सुनाया कि उपराज्यपाल (LG) मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया कि उपराज्यपाल को कैबिनेट की सलाह के हिसाब से काम करना होगा. संविधान पीठ ने कहा कि उपराज्यपाल सिर्फ वहीं स्वतंत्र तौर से काम कर सकते हैं, जहां उन्हें संविधान ये अधिकार देता है. एलजी हर फैसले को राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने बेहतरी के लिए उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार को मिलजुलकर काम करने को भी कहा.
2021 में संसद से हुआ दिल्ली कानून में बड़ा बदलाव
2018 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद केंद्र सरकार ने दिल्ली को लेकर 2021 में बड़ा फैसला लिया. केंद्र सरकार GNCT Delhi Act 1991 में संशोधन के लिए संसद में विधेयक लाई. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक, 2021 लोकसभा से 22 मार्च और राज्यसभा से 24 मार्च 2021 को पारित हुआ. GNCT Delhi (संशोधन) कानून 2021 के जरिए उपराज्यपाल (LG) और दिल्ली विधानसभा की शक्तियों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया गया. नया कानून 27 अप्रैल 2021 से लागू हो गया. नए कानून के जरिए 1991 के कानून में कुछ इस तरह के बदलाव किए गए:
नए कानून से उपराज्पाल की सर्वोच्चता स्थापित
नए कानून के इस आखिरी व्यवस्था से उपराज्यपाल को अधिकार मिल गया कि वे अब दिल्ली सरकार के किसी भी फैसले में दखलंदाजी कर सकते हैं. अब दिल्ली सरकार को अपने किसी भी फैसले पर अमल के लिए भी एलजी की राय की जरुरत पड़ती है. 2021 के कानून के जरिए दिल्ली के LG की भूमिकाओं और अधिकारों को स्पष्ट तौर से परिभाषित कर दिया गया. केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर भ्रम की स्थिति को खत्म करने के लिए नया कानून बनाया गया और प्रशासनिक अस्पष्टताओं को दूर करने के लिए कुछ प्रावधान जोड़े गए. निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के उत्तरदायित्वों को स्पष्ट करना इसका मकसद बताया गया. 2018 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बने हालात से निपटने के लिए ही केंद्र सरकार की ओर से 2021 में नया कानून बनाया गया. नए कानून के जरिए एक बार फिर से दिल्ली के मामले में उपराज्पाल की सर्वोच्चता को स्थापित कर दिया गया.
नए कानून के विरोध में केजरीवाल सरकार
हालांकि आम आदमी पार्टी की सरकार इससे सहमत नहीं हुई. केजरीवाल सरकार का कहना है कि नए कानून के जरिए केंद्र सरकार ने पीछे के दरवाजे से उपराज्यपाल को ज्यादा अधिकार देने की कोशिश की है और 1991 के कानून में बनाए गए संतुलन को बिगाड़ने का काम किया है. दिल्ली के प्रशासनिक सेवाओं को लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाई है और नए कानून के जरिए निर्वाचित सरकार के अधिकारों में कटौती कर दी गई है. आम आदमी पार्टी के साथ ही दिल्ली सरकार ने नए कानून को असंवैधानिक करार देने के लिए कोर्ट का रुख किया. दिल्ली सरकार ने सितंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट में नए कानून को चुनौती देते हुए इसे निर्वाचित सरकार के खिलाफ बताया.
प्रशासनिक सेवाओं पर किसका नियंत्रण?
दिल्ली के प्रशासनिक सेवाओं पर अधिकार का मसला भी बेहद जटिल है. दिल्ली के लिए अलग से कोई प्रशासनिक सेवाओं का कैडर नहीं है. इन सेवाओं से जुड़े विधायी और कार्यकारी शक्तियों पर दिल्ली सरकार या केंद्र सरकार का नियंत्रण है, इससे जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में 5 सदस्यीय संविधान पीठ इसकी सुनवाई कर रही है. दिसंबर 2022 के पहले हफ्ते में सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने इस मुद्दे को 9 या उससे ज्यादा जजों की संविधान पीठ के पास भेजने की मांग की है. केंद्र सरकार का कहना है कि 2018 का सुप्रीम कोर्ट का आदेश एनडीएमसी बनाम पंजाब सरकार (1996) के मामले में 9 जजों की संविधान पीठ के फैसले से असंगत है. इसलिए इस मामले को और बड़ी पीठ के पास भेजा जाना चाहिए. हालांकि दिल्ली सरकार ने 9 जजों या उससे भी बड़े बेंच के पास इस मुद्दे को भेजने का विरोध किया है. दिल्ली सरकार का कहना है कि इससे मामले के निपटारे में और देरी होगी.
हाईकोर्ट से दिल्ली सरकार को झटका
इस बीच 27 दिसंबर 2022 को दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली विधानसभा में एक पद के सृजन से जुड़े मामले में आदेश देते हुए कहा कि विधानसभा स्पीकर इस तरह के किसी पद का गठन नहीं कर सकते. हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि दिल्ली में सेवाओं पर केंद्र सरकार का नियंत्रण है. चूंकि दिल्ली केंद्रशासित प्रदेश है, इस वजह से दिल्ली की सेवाएं (servics) केंद्र सरकार के अधीन हैं. ये मामला दिल्ली विधानसभा में 2002 में एक पद के सृजन से जुड़ा था. इस पद को बनाकर, उसपर एक केंद्रीय सेवा अधिकारी को डेप्युटेशन (on deputaion) पर लाया गया था, जिसे बाद में विधानसभा सचिवालय में स्थायी कर दिया गया था. 2013 में उसे पद से हटा दिया गया था.