साधु, संन्यासी और फकीर…ये शब्द हमारे ज़हन में ऐसे लोगों की तस्वीरें लाते हैं जो शांत, उदार और दुनिया की मोह-माया से विरक्त हों. मगर एक वक्त ऐसा था जब इन्हीं साधुओं, संन्यासियों और फकीरों ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठा लिए थे.
संन्यासियों के विद्रोह की यह सच्ची कहानी 1770 के आसपास शुरू हुई और 1820 तक चलती रही. विद्रोह का जन्म हुआ बंगाल के जलपाईगुड़ी में मुर्शिदाबाद और बैकुंठपुर के जंगलों में. विद्रोह के अगुवा थे पंडित भवानी चरण पाठक. यह वो वक्त था जब बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था. लोगों को खाने के लाले पड़े थे और अंग्रेजी शासन की क्रूरता चरम पर थी. ज़मींदारों और किसानों से टैक्स वसूला जा रहा था. आम जनता ब्रितानी हुकूमत से त्रस्त हो गई थी और इस उत्पीड़न का कोई अंत नज़र नहीं आ रहा था.
यह भी पढ़ें: आज़ादी के लिए दिन-रात एक करने वाले बापू इसके जश्न में शामिल क्यों नहीं हुए थे?
इसी समय अंग्रेजी हुकूमत ने साधुओं की तीर्थयात्रा पर भी प्रतिबंध लगा दिया. इन सबका नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजी सरकार के खिलाफ संन्यासियों का गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने उनके खिलाफ सशस्त्र विद्रोह छेड़ दिया. साधुओं ने अंग्रजों से दो-दो हाथ किए, अफसरों की कोठियां लूटीं और नाकों चने चबवा दिए.
इस लड़ाई में सशस्त्र नागा साधुओं से लेकर कभी मराठा, राजपूतों और नवाबों की सेना में सैनिक रह चुके संन्यासी भी थे. संन्यासियों का विद्रोह कई बरस तक चलता रहा लेकिन अंग्रेजों ने आधुनिक हथियारों और सैन्य शक्ति के दम पर 1820 में इसका दमन कर दिया.
बाद में बंकिम चंद चटर्जी ने इसी संन्यासी विद्रोह की पृष्ठभूमि में मशहूर उपन्यास “आनंदमठ” लिखा, जहां से हमारा राष्ट्रगीत “वंदे मातरम्” लिया गया है. इतिहासकार डॉ. भूपेंद्र नाथ दत्त के मुताबिक ये संन्यासी “ओम् वंदे मातरम्” का युद्धघोष किया करते थे.
आधुनिक भारत के इतिहास में संन्यासी विद्रोह की यादें काफी हद तक धूमिल हो गई हैं लेकिन अब यह जल्दी ही पॉप कल्चर का हिस्सा बनने वाला है. जल्दी ही संन्यासी विद्रोह पर आधारित फिल्म आने वाली है जिसका नाम है- 1770.