पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) को पांच साल के लिए बैन करके मोदी सरकार ने बड़ा फैसला लिया है जिसके पक्ष और विपक्ष में देशभर से प्रतिक्रियाएं आ रही है. केन्द्र सरकार का ये कदम सियासत से प्रेरित है या फिर वाकई ये कदम देश के लिए जरूरी था. इसका जवाब तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन यहां हम आपको अलग-अलग मीडिया रिपोर्ट्स के हवाले से बताते हैं कि बैन का ये प्लान बना कैसे?
PFI पर कई गंभीर आरोप
ये जगजाहिर है कि PFI की जड़ें देश में बड़ी गहरी हैं. साल 1994 में गठित हुए इस संगठन पर काफी पहले से कई गंभीर आरोप लगते रहे हैं लेकिन कभी इतना बड़ा एक्शन नहीं हुआ जो 28 सितंबर को केन्द्र सरकार ने लिया. अलग-अलग मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो PFI पर इस बड़े एक्शन की कहानी अगस्त महीने की शुरुआत में अमित शाह के कर्नाटक दौरे से शुरू होती है...
अमित शाह के दौरे पर शुरुआत
अमर उजाला में छपी रिपोर्ट के मुताबिक इसके बाद पूरे प्लान की जानकारी PMO को दी गई. वहां से हरी झंडी मिलने के बाद डोभाल ने पूरे मिशन पर काम शुरू किया. दो सितंबर को जब PM केरल में INS विक्रांत के कार्यक्रम में गए तो डोभाल भी साथ ही में थे. उसके बाद PM तो दिल्ली लौट आए लेकिन डोभाल वहीं रूक गए. वहां टॉप पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक करने के बाद वो मुंबई गए और वहां भी अधिकारियों के साथ बैठक की.
NIA और ATS के छापे
इसके बाद 22 सितंबर को देशभर में PFI के ठिकानों पर NIA और ATS के छापे पड़े. 106 लोगों को गिरफ्तार किया गया. दूसरी बार 27 सितंबर को छापा पड़ा और 230 सदस्यों को हिरासत में लिया गया. सरकार का दावा है कि इस दौरान एजेंसियों को पर्याप्त सबूत मिले जिनके आधार पर PFI पर बैन लगाने का फैसला लिया गया.