Kantha Stitch: कांथा लगभग 500 साल पुरानी लोकप्रिय कढ़ाई है जिसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल से हुई. आजकल इस कढ़ाई का उपयोग इंडिया के बाहर भी कई देशों में, जैसे यूके और जापान में होने लगा है.
इस कढ़ाई की शुरुआत असल में घरेलु महिलाओं ने की थी. पुराने समय में अधिकतर लोग अपने घरों में ही कपड़े सिला करते थे. सिलाई के बाद जो चिथड़े बचते थे उनको ठिकाने लगाने की सोच के साथ चिथड़ों से चिथड़े के कपड़े सिलकर कांथा की उत्पत्ति हुई. इसे आम भाषा में "रनिंग स्टिच" या "चलती सिलाई" भी कहते है.
19वी सदी में ये कढ़ाई विलुप्त होने की कगार पर थी जब रबींद्रनाथ टैगोर की पत्नी प्रतिमा देवी ने इसके प्रति जागरूकता बढ़ाई और कई महिलाओं को इस कढ़ाई को करने के लिए प्रोत्साहित किया. इस कला के ज़रिये उस समय कई घरों में चूल्हे जला करते थे.
शुरुआती समय में इस कढ़ाई का इस्तेमाल केवल रेशम और कॉटन के कपड़ों पर किया जाता था लेकिन अब इसका उपयोग शिफॉन, क्रेप और जॉर्जेटके के कपड़ों पर भी होने लगा है.
सबसे पहले बच्चे को सुलाने के लिए बिस्तर, रज़ाई, पैर दान और ओढ़ने के कपड़े बनाने के लिए इस कढ़ाई का इस्तेमाल होता था. महिलाएं 5-6 पुरानी साड़ियों को इक्कठा कर एक के ऊपर एक रखकर सिलती जाती थीं जिससे मुलायम बिस्तर बनकर तैयार हो जाता है.
पहले सिर्फ बच्चों के बिस्तर और कम्बल बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाली कढ़ाई समय के साथ साथ फैशन की दुनिया में लोकप्रिय हो गयी. अब इस कढ़ाई से तरह तरह के पैटर्न जैसे ज़िगज़ैग, क्रॉस, लाइन्स और आकृतियां जैसे फूल पत्तियां, जानवर, और चिड़िया बनायीं जाती हैं.
अब इस तरह की कढ़ाई साड़ी, सलवार सूट और कुरता पर किया जाने लगा है. यहां तक कि ये रूमाल, टेबल क्लॉथ, शॉल, तकिए के कवर, जैकेट्स, बैग, दुपट्टे, और घरेलू सामानों पर भी देखी जा सकती है. आजकल कई फैशन ब्रांड्स और मॉडर्न फैशन डिजाइनर्स कांथा कढ़ाई के जैकेट्स, पैन्ट्स और मॉडर्न वेस्टर्न कपड़े भी बनाने लगे हैं.