History of sabudana in India : हमारे भारत में कोई भी व्रत या त्योहार साबूदाना (Sabudana) के व्यंजनों के बिना पूरा नहीं होता. ख़ासकर भारत के मध्य और उत्तरी भागों में इसकी खपत बहुत अधिक होती है.
क्या आपको पता है कि त्योहारों और व्रत में खिचड़ी, वड़ा और पकोड़ों की तरह चाव से खाये जाने वाले साबूदाना का इतिहास केरल से जुड़ा हुआ है? जी हां! भारत में इसका इतिहास 1860 के दशक के दौरान से है. इसके अलावा, आपको जानकर हैरानी होगी कि टैपिओका tubers (tapioca tubers), जिसकी जड़ों का इस्तेमाल टैपिओका पर्ल्स (Tapioca Pearls) यानि साबूदाना बनाने के लिए किया जाता है, उसकी उत्पति दूर देश ब्राज़ील में हुई है.
इतिहास कहती है कि, 1860 के दशक में त्रावणकोर राज्य के तत्कालीन शासक अयिलम थिरुनल राम वर्मा ने लोगों को जानलेवा अकाल से बचाने के लिए पहली बार इस विदेशी जड़ को पेश किया था. शासक और उनके वनस्पतिशास्त्री भाई ने अपने राज्य में भूख से मर रही एक बड़ी आबादी के लिए भोजन के वैकल्पिक स्रोत के रूप में टैपिओका की शुरुआत की. द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) के बाद भी, जब चावल एक महंगा अनाज था, लोगों ने अपने खाने में साबूदाना को तवज्जो देना शुरू किया, जिसे केरल में आमतौर पर कप्पा कहते हैं.
यह भी देखें: व्रत में ही लोग अक्सर क्यों खाते हैं सेंधा नमक? जानिये वजह
और कुछ इस तरह से हमारा फेवरेट साबूदाना पारंपरिक व्यंजनों के रूप में हमारी रसोई और थाली में पहुंच गया. वैसे तो साबूदाना कार्बोहाइड्रेट से भरपूर होता है, लेकिन इसके साथ फाइबर, फैट और प्रोटीन का सही बैलेंस मिलने से ये व्रत यानि कि फास्टिंग के दिनों में परफेक्ट भोजन बन जाता है. खासकर, वेजिटेरियंस के लिए इसे कार्बोहाइड्रेट और कैलोरी का एक बेहतरीन स्रोत माना जाता है.