खुली किताब के सफ्हे उलटते रहते हैं
हवा चले न चले, दिन पलटते रहते हैं...
लफ्जों के मोती को अपने गीतों में सजाने वाले हिंदी सिनेमा के मशहूर और दिग्गज गीतकार गुलज़ार (Gulzar) को भला कौन नहीं जानता. उनके लिखे गीतों का जादू लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है. लेकिन आम इंसान से दिग्गज गीतकार बनने का उनका सफर आसान नहीं था. इसके लिए गुलजार साहब को काफी मेहनत करनी पड़ी.
18 अगस्त 1934 को जन्मे गुलज़ार के बचपन का नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा था. गुलजार का परिवार बंटवारे के वक्त अमृतसर में आकर बस गया था. काम की तलाश में गुलजार ने मुंबई का रुख किया. मुंबई पहुंचकर उन्होंने एक गैरेज में बतौर मेकैनिक काम करना शुरू किया. बचपन से कविता और शेरो-शायरी के शौकीन गुलज़ार उस वक्त खाली समय में कविताएं लिखा करते थे. गैरेज के पास ही एक बुकस्टोर वाला था जो आठ आने के किराए पर दो किताबें पढ़ने को देता था. गुलजार को वहीं पढ़ने का चस्का लगा.
एक बार मशहूर निर्माता-निर्देशक बिमल रॉय की कार खराब हो गई तो वो कार ठीक कराने उसी गैरेज पर पहुंचे गए जहां गुलजार काम किया करते थे. बिमल रॉय ने गैरेज पर गुलजार और उनकी किताबों को देखा. पूछा कौन पढ़ता है यह सब? गुलजार ने कहा, मैं! बिमल दा ने गुलजार को अपना पता देते हुए अगले दिन मिलने को बुलाया.
इसके बाद गुलजार जब बिमल रॉय से मिलने पहली बार उनके दफ्तर गए तो उन्होंने कहा कि 'अब कभी गैरेज में मत जाना!'. उन्होंने बाद में गुलजार को अपनी फिल्म में गाना लिखने का मौका भी दिया. सा
ल 1963 में आई फिल्म 'बंदिनी' के सभी गाने शैलेंद्र ने लिखे थे, लेकिन एक गाना ‘मोरा गोरा अंग लेइ ले, मोहे श्याम रंग देइ दे’ गुलजार के कलम का शाहकार था. इस गीत ने खूब सुर्खियां बटोरीं, और फिर गुलजार ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. उन्होंने कई फिल्मों के लिए गाने और डायलॉग्स से लेकर पटकथा भी लिखी.
गुलजार को फ़िल्मफेयर अवार्ड्स, नेशनल अवार्ड, साहित्य अकादमी और पद्म भूषण अवार्ड्स से नवाजा गया है. देश ही नहीं विदेश में भी गुलजार ने अवा्र्ड जीता. साल 2008 में आई ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ के गाने 'जय हो' के लिए उन्हें ऑस्कर अवार्ड दिया गया. इसके अलावा साल 2012 में 'दादा साहब फाल्के अवार्ड' भी मिला.
ये भी पढ़ें : Shershaah: ऐसे फिल्माए गए फिल्म के वॉर सीन्स, Sidharth Malhotra ने BTS वीडियो शेयर कर दिखाई झलक