Actor Johnny Walker Biography: 1950-1960 के दौर में... जॉनी वॉकर एक मशहूर कॉमेडियन (Famous Comedian) बन चुके थे... जॉनी वॉकर (Johnny Walker) की बेटी तसनीम खान (Tasneem Khan) इस दौर में कॉलेज की पढ़ाई कर रही थीं. वह कॉलेज से लौटने के लिए BEST बस लिया करतीं... घर के पास वाले बस स्टैंड पर आते ही उनकी खुशी बढ़ जाती थी क्योंकि कंडक्टर जोर से चिल्लाता- "जॉनी वॉकर बस स्टॉप, जॉनी वॉकर बस स्टॉप..."
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बांद्रा में जॉनी वॉकर का घर बस स्टॉप के ठीक सामने था और इसीलिए यह बस स्टॉप की एक नई पहचान बन गया था... जॉनी वॉकर खुद भी फिल्मों में आने से पहले एक बस कंडक्टर ही थे. बांद्रा में बॉलीवुड की कई हस्तियों के घर हैं... झरोखा में आज बात जॉनी वॉकर की ही जिनका जन्म 11 नवंबर 1926 को यानी 94 साल पहले आज ही के दिन हुआ था.
ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां... ये है बॉम्बे मेरी जान," गुरु दत्त की फिल्म सीआईडी का ये एक ऐसा गीत है जो न सिर्फ सपनों के शहर मुंबई के मिजाज को दिखाता है बल्कि इस गीत की वजह से आज भी जॉनी वॉकर लाखों दिलों में जिंदा हैं. गुरु दत्त (Guru Dutt) के पसंदीदा रहे जॉनी वॉकर, इंडियन फिल्म इंडस्ट्री के ऐसे कॉमेडियन जिन्होंने फिल्मों में कॉमेडियन कैरेक्टर रखने की परंपरा शुरू की.
एस.के. ओझा (S K OJHA) की फिल्म हलचल (1951) में बलराज साहनी (Balraj Sahni) पहली बार दिलीप कुमार (Dilip Kumar), नरगिस (Nargis), के. आसिफ (K. Asif) जैसी नामचीन हस्तियों के साथ पहली बार काम कर रहे थे. लंच ब्रेक के दौरान साहनी ने देखा कि कई कलाकार बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी (Badruddin Jamaluddin Kazi) से कॉमेडी करने के लिए कह रहे थे ताकि कलाकारों का मनोरंजन हो सके. बदरू यानी बदरुद्दीन मिमिक्री में बहुत अच्छा था. शराबी की ऐक्टिंग उसकी स्पेशलाइजेशन थी. या कभी-कभी, वह फुटपाथ पर कुछ बेचने वाले का भी किरदार करता और सभी को अपना दीवाना बना देता था.
साहनी अभी इंडस्ट्री में पैर जमा ही रहे थे और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे थे. ज्यादातर वह फ्रस्ट्रेशन से भरे काम की वजह से गुस्सा ही रहते थे. ऐसे ही एक दिन जब वह अपने काम से परेशान थे, बदरू के पास गए... बदरू की कंपनी में उन्हें ऐसा लगा मानों कोई दोस्त मिल गया हो.
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बलराज साहनी अपनी तकलीफ भूल गए थे.... बातचीत का सिलसिला जैसे जैसे आगे बढ़ा साहनी को पता चला कि बदरुद्दीन काजी को हर दिन 5 रुपये मिलते थे. और इसमें से भी एक रुपये सप्लायर को जाता था. बलराज साहनी को यह बेहद कम लगा. वह जान गए थे कि बदरुद्दीन की असल प्रतिभा ब्रेक टाइम में कलाकारों का मनोरंजन करना नहीं, बल्कि फुल टाइम में फुल स्क्रीन पर करोड़ों लोगों को हंसाने की थी. वह बदरुद्दीन के लिए सही मौके की ताक में लग गए...
वे अच्छे दोस्त बन गए. जब भी साहनी अपनी मोटरसाइकिल पर बैठकर माहिम से गुजरते, बदरू उनसे टकरा ही जाता था... और हर बार बदरू साहनी को उनका वादा याद दिला देता था.. इसी दौरान एक समय जब बलराजज साहनी, गुरुदत्त के लिए बाजी फिल्म लिख रहे थे, उन्होंने बदरू को ध्यान में रखते हुए एक शराबी का किरदार भी तैयार किया. लेकिन वह सोचते रहे कि प्रोड्यूसर और डायरेक्टर को कैसे समझाएंगे कि बदरू इस कैरेक्टर के लिए एकदम फिट है. इसलिए नहीं क्योंकि वह बलराज साहनी के दोस्त थे, बल्कि इसलिए कि उनमें कॉमेडी का असल टैलेंट था.
कुछ दिनों बाद, देव आनंद और चेतन आनंद (आनंद बंधु), गुरुदत्त और बलराज साहनी अपने ऑफिस में बाजी के ट्रीटमेंट पर सोच विचार कर रहे थे. तभी ऑफिस में हंगामा खड़ा हो गया.. पता चला कि कहीं से एक शराबी घुस आया है... और वह सभी कर्मचारियों को परेशान कर रहा है. हर जगह से गुजरने के बाद वह सीधे अंदर आ गया और देव आनंद की ओर मुड़ गया. उसने देव आनंद से बातें करनी शुरू कीं. देव आनंद (Dev Anand) को उसकी कमाल की बातों के आगे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था.
कमरे में बैठे सभी चार दिग्गज इस मेहमान को देखकर लोटपोट हुए जा रहे थे.. आधे घंटे तक यही चलता रहा. आखिर में चेतन ने ये सोचकर कि कहीं मामला हाथ से निकल न जाए, सिक्योरिटी से उसे बाहर करने को कहा... लेकिन तभी बलराज साहनी उठ खड़े हुए और शराबी शख्स से सभी को सलाम करने को कहा. आश्चर्य! नशे में धुत आदमी तुरंत शांत हो गया, और अब सबकी हैरानी और भी बढ़ गई थी.
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साहनी ने सबको बताया कि बदरू की प्रतिभा उन सभी को दिखाने के लिए उन्होंने ही ये सब किया था... अब तीनों इतने प्रभावित हो गए थे कि बदरू को फटाफट अगली फिल्म के लिए साइन कर लिया गया. वह गुरुदत्त ही थे जो बदरुद्दीन काजी की शराबी वाली ऐक्टिंग देखकर ऐसे खुश हुए कि उनका नया नाम जॉनी वॉकर रख दिया. सबसे बड़ी विडंबना ये कि शराब से बदरू यानी जॉनी वॉकर हमेशा दूर ही रहे!
जिस शख्स ने कभी शराब को नहीं छुआ, उसने एक शराबी की ऐक्टिंग से करोड़ों लोगों के दिल को छुआ. वॉकर हिंदी सिनेमा के उस दौर की जरूरत बन गए जिसे आज भी उसका स्वर्णिम काल कहा जाता है. ये वह दौर था जब कॉमेडी का मतलब डबल मीनिंग जोक्स या फॉरवर्डेड मेसेज नहीं था.
उनका गोल्डन पीरियड 50 और 60 का दशक था. इसी दौरान उन्होंने यादगार और शानदार परफॉर्मेंस दी. वह एक नेचुरल कॉमेडियन थे, उनकी कॉमेडी कभी भी वल्गर नहीं थी. लेकिन, 1970 के बाद से कॉमेडी में बदलाव आने लगा. कुछ कॉमेडियन भद्दे जेस्चर तो कुछ डबल मीनिंग शब्दों की ओर बढ़ने लगे... जॉनी वॉकर ने कभी भी इस तरह की कॉमेडी नहीं ती.
एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि उन्होंने 300 से ज्यादा फिल्मों में काम किया और सेंसर बोर्ड ने कभी भी उनके किरदार की एक लाइन भी कट नहीं की. बॉक्स ऑफिस पर ये उनका टैलेंट ही था कि डिस्ट्रिब्यूटर्स, प्रोड्यूसर्स या डायरेक्टर्स से फिल्म में उनका एक गीत रखने को जरूर कहते थे.
जॉनी वॉकर ने शकीला (Shakila) की छोटी बहन नूरजहां से शादी की. शकीला, नूरजहां और नसरीन तीन बहनें थीं जिन्होंने बहुत कम उम्र में अपने माता-पिता को खो दिया था. वे अपने चाचा और चाची की देखरेख में बड़ी हुई थीं. तीनों बहने बेहद खूबसूरत थीं. तीन बहनों में शकीला सबसे मशहूर अभिनेत्री बनीं. उन्होंने सीआईडी, आर पर, काली टोपी लाल रुमाल, टावर हाउस, हातिम ताई जैसी फिल्मों में काम किया लेकिन शादी के बाद फिल्में करनी छोड़ दीं. अफसोस की बात ये कि उनकी शादी तलाक में खत्म हो गई.
तकदीर ने उनके हिस्से में और भी तकलीफें लिखीं. उनकी 21 साल की बेटी ने मुंबई में आत्महत्या कर ली. शकीला नामचीन ऐक्ट्रेस रहीं... लेकिन उनकी जिंदगी तकलीफों से भरी रही.. वह एक शुगर पेशेंट थीं, 2017 में उनका निधन हो गया. वह अपनी छोटी बहन नूरजहां (नूर) के परिवार से करीब थीं. नूर की बात करें तो बॉलीवुड में उनका करियर बहुत अच्छा नहीं रहा लेकिन उन्हें जॉनी वॉकर के रूप में एक ऐसा पति मिला जिसने उन्हें जिंदगी भर खुश रखा. उनकी सादगी और ईमानदारी उन्हें किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा प्यारी थी.
जॉनी वॉकर की नूर से मुलाकात आर पार (1954) की शूटिंग के दौरान हुई थी. नूर उस समय एक नई कलाकार थीं. दोनों परिवारों के विरोध के खिलाफ जाकर शादी के बंधन में बंधे. उनके छह बच्चे हुए- एक नासिर खान को छोड़कर, उनके अन्य सभी बच्चे अमेरिका में बस गए. नासिर खान ने भी एक्टिंग की राह ही चुनी.
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जॉनी वॉकर की कॉमेडी को आज गुजरे दौर का माना जा सकता है लेकिन 1950 और 1960 के दशक में उनकी अपनी फैन फॉलोइंग थी. 1970 के दशक में, जॉनी वॉकर को बहुत अधिक फिल्मों में नहीं देखा गया. इस वक्त के बाद उन्होंने अपनी ऐक्टिंग को धीरे धीरे फिल्मों से दूर कर दिया... एक समय, बॉम्बे की सड़कों पर चलने वाली 80% से अधिक टैक्सियां जॉनी वॉकर की थीं.
वह दिलीप कुमार, नौशाद, मजरूह और मोहम्मद रफी (Mohammad Rafi) के करीबी दोस्त थे - ये सभी बांद्रा में रहते थे. फिल्में छोड़ने के सालों बाद जॉनी वॉकर ने कमल हासन की चाची 420 (Kamal Hassan Movie Chachi 420) में अभिनय किया. इस रोल के लिए वॉकर काफी मिन्नतों के बाद राजी हुए थे.
एक अभिनेता जिसने अपने परिवार को हर चीज से पहले रखा, उसने समाज के लिए भी कार्य किया. वह हमेशा बच्चों से एक ही दुकान से समोसे लाने को कहते ताकि गरीब दुकानदार की मदद हो सके. उनका कीमती स्टोन्स का कारोबार था. इंदौर में एक मिल में काम करने वाले गरीब मजदूर के बेटे को ताउम्र छठी कक्षा में स्कूल छोड़ देने का अफसोस रहा. और इसीलिए शायद उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाई के लिए अमेरिका तक भेजा.
प्यासा के क्लाइमेक्स सीन में जॉनी वॉकर भगदड़ में फंस जाते हैं. तब वह भीड़ के सिर पर पैर रखकर आगे बढ़ते हैं... प्रतिज्ञा (1975) के एक लोटपोट करने वाले सीन में, धर्मेंद्र उन्हें थप्पड़ जड़ देते हैं तब जॉनी वॉकर कहते हैं, "इतनी सी बात के लिए, इतना गुस्सा ..." जिस तरह से वॉकर ने इस कॉमेडी सीन में अपनी बात कही, वह आज भी अमिट है...
ऋषिकेश मुखर्जी की आनंद में उनकी भूमिका आज भी दिल में उतर जाती है.
जॉनी वॉकर को पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड मधुमति (1958) के लिए मिला जबकि दूसरा शिकार (1968) के लिए.
1960 के दशक में हिंदी सिनेमा में महमूद की लोकप्रियता ने जॉनी लीवर की डिमांग को कम किया लेकिन उन्होंने कभी महमूद से बैर नहीं रखा. वह महमूद को पसंद करते थे.
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जॉनी लीवर अक्सर ही पवई झील में पत्नी के साथ मछलियां पकड़ने जाया करते थे. उनके लिए परिवार ही उनकी दुनिया थी और दुनिया ही उनका परिवार थी. उनके बंगले का नाम नूर विला है और यह पेरी क्रॉस रोड, ब्रांदा में है.
चलते चलते 11 नवंबर को हुई दूसरी घटनाओं पर भी एक नजर डाल लेते हैं
1675 - गुरु गोबिन्द सिंह (Guru Govind Singh) सिखों के गुरु नियुक्त हुए थे
1918 - पोलैंड (Poland) ने खुद को स्वतंत्र देश घोषित किया
1989 - बर्लिन की दीवार (Berlin Wall) गिराने की शुरुआत
2000 - ऑस्ट्रिया में सुरंग से गुजरती हुई ट्रेन में आग लगने से 180 लोगों की मौत