Amrita Pritam Biography : अमृता प्रीतम - Amrita Pritam (1919-2005) पंजाबी की सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक रही हैं. पंजाब (भारत) के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है. उन्होंने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' (Rasidi Ticket) भी शामिल है. अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ. अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ. उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था.
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बात 1947 की है...भारत-पाकिस्तान का बंटवारा (India-Pakistan partition) हुआ था. दोनों तरफ एक-दूसरे के प्रति नफरत सातवें आसमान पर थी. हालात ऐसे थे कि मरने-मारने से कम पर कोई राजी ही नहीं था लेकिन सीमा के दोनों तरफ कुछ चीजें कॉमन भी थीं. उनमें से एक थी- अमृता प्रीतम की लिखी कविता-...जिसके बोल थे-
आज वारिस शाह से कहती हूं , अपनी कब्र में से बोलो
और इश्क की किताब का कोई नया पन्ना खोलो
पंजाब की एक बेटी रोई थी, तूने एक लंबी दस्तांन लिखी
आज लाखों बेटियां रो रही हैं, वारिस शाह तुम से कह रही हैं
ए दर्दमंदों के दोस्त, पंजाब की हालत देखो
चौपाल लाशों से अटा पड़ा हैं, चिनाब लहू से भरी पड़ी है
यही वो कविता है जिसे लाहौर और अमृतसर दोनों तरफ के लोग अपनी जेब में लेकर घूमते थे...अकेले में इसे पढ़ कर आंसू बहाते थे क्योंकि प्रेम के रस में डूबी ये कविता उन्हें सुकून देती थी ...लेकिन इसे रचने वाली अमृता प्रीतम का तो पूरा जीवन ही अपने मुकम्मल प्यार की आस में बीत गया...महान साहित्यकार कमलेश्वर ने कितने पाकिस्तान (Kitne Pakistan : Kamleshwar) में लिखा है कि यदि आपको दुनिया कहीं प्यार की तलाश करनी हो तो आप अमृता के घर चले जाइए...
आज की तारीख का संबंध है अमृता प्रीतम (Amrita Pritam) से...31 अगस्त 1919 में आज ही के दिन पाकिस्तान के गुजरांवाला (Gujranwala in Pakistan) में अमृता का जन्म हुआ था अमृता प्रीतम का. आज हम जानेंगे भारत की उस लेखिका के बारे में, जिसने पिंजर लिखा... रसीदी टिकट, कोरे कागज, कागज और कैनवस, मैं तुम्हें फिर मिलूंगी लिखा... 100 से ज्यादा किताबें लिखने वाली अमृता साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली महिला लेखिका हैं
कहानी की शुरुआत होती है 1944 में... जब एक शादीशुदा महिला अमृता पहली बार एक उभरते कवि और गीतकार साहिर (Sahir Ludhianvi) से मिलती है... यह लाहौर के पास गांव प्रीत नगर था... कहते हैं कि दोनों की प्रेम कहानी वहीं से शुरू हुई... अमृता खूबसूरत थीं और उनके शब्दों का जादू तुरंत साहिर पर चल गया... कमाल की बात ये है कि दोनों कुछ ही मौकों पर मिले थे... लेकिन प्रेम कहानी का सिलसिला चिट्ठियों से चलता रहा...
जिस वक्त अमृता, साहिर से मिलीं, वो प्रीतम सिंह से ब्याही हुई थीं. अमृता प्रीतम की शादी 6 साल की उम्र में कारोबारी प्रीतम सिंह से कर दी गई थी.
कहते हैं कि जिंदगी में अगर दर्द हों... तो ये किसी लेखक के लिए सबसे बेहतर बात हो जाती है... अमृता के लिए दुख और त्रासदी छोटी उम्र से ही शुरू हुई... विभाजन से पहले भारत में 31 अगस्त 1919 को पंजाब में जन्मी थीं अमृता.... वह स्कूल टीचर राज बीबी और कवि करतार सिंह हितकारी की संतान थीं... हितकारी ब्रज भाषा के विद्वान थे. अमृता की जिंदगी में पहली त्रासदी 11 साल की उम्र में तब आई जब मां उन्हें छोड़कर चली गईं. अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में अमृता ने लिखा है कि मां की मृत्यु वह क्षण था, जब मैंने ईश्वर में भरोसा खो दिया और नास्तिक बन गई... वह जीवन भर नास्तिक ही रही.
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इस त्रासदी के बाद परिवार लाहौर चला आया... वह 1947 तक वहीं रहीं और विभाजन के दौरान भारत आईं... अपने बचपन के घर से उजड़कर और एक अजनबी शहर में बिना मां के और एक व्यस्त पिता के साथ पली-बढ़ी, अमृता को इन्हीं सब ने छोटी उम्र में ही बहुत बड़ा बना दिया था... उसने अपने पिता की लाइब्रेरी में रहतीं. 16 साल में उन्होंने पहली कविता संकलन अमृता लहरें लिखीं... 11 साल की लड़की, जो अपनी मां के निधन के बाद से बेसुध हो गई थी, 16 साल में वह आत्मनिर्भर बन गई थी. इसी साल उसकी शादी प्रीतम सिंह से हुई थी. दोनों की सगाई तब हो गई थी जब अमृता 6 साल की थीं.
हालांकि गौना बाद में 16 साल की उम्र में हुआ.... अमृता अपनी शादीशुदा जिंदगी में खुश नहीं थीं. साहिर से मिलने के बाद उनकी जिंदगी में खुशी की एक नई लहर आई. मगर इससे पहले ही नन्हें हाथों ने कलम को अपनी आवाज बना ली थी. 16 साल की उम्र में ही उनकी पहली किताब ‘अमृत लहरें’ (Amrit Lahren) छपी.
ऐसा माना जाता है कि अमृता का साहिर के प्रति प्यार गहरा हो गया... वह अपनी शादी से बाहर आना चाहती थीं... वह साहिर को बेपनाह प्यार करने लगीं लेकिन साहिर ने कभी इस रिश्ते के लिए खुद को समर्पित नहीं किया. अमृता की जिंदगी के खालीपन को चित्रकार इमरोज (Imroz) ने भरा जरूर लेकिन वह भी बहुत देर से... वह शादी का रिश्ता तोड़कर 45 साल तक इमरोज के संग रहीं... दोनों ने कभी शादी नहीं की...
अमृता दिल्ली में रहती थीं और साहिर लाहौर में. दो मोहब्बत करने वालों के बीच की इस दूरी को खत्म किया खतों ने. जिस्म दूर थे, मगर दिल करीब और रूह एक. सो, कागज पर इश्क के अल्फाज लिखे जाते रहे. कभी स्याह तो कभी सुर्ख.
अमृता के खत बताते हैं कि साहिर की दीवानी हो चुकी थीं. अमृता उन्हें मेरा शायर, मेरा महबूब, मेरा खुदा और मेरा देवता कहकर पुकारती थीं.
अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट (Amrita Pritam Biography Raseedi Ticket) में अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ हुई मुलाकातों का जिक्र किया है. वो लिखती हैं कि, 'जब हम मिलते थे, तो जुबां खामोश रहती थी. आंखें बोलती थी. दोनों एक दूसरे को एकटक देखा करते'. और इस दौरान साहिर लगातार सिगरेट के कश मारते रहते. मुलाकात के बाद जब साहिर वहां से चले जाते, तो अमृता अपने महबूब के सिगरेट के टुकड़ों को होंठों से लगातीं... सिगरेट के जले टुकड़े छूकर वो ऐसा महसूस करतीं मानों साहिर को अपने होठों से छू रही हों...
अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत की राह में कई मुश्किलें थी. बंटवारे के बाद अमृता अपने पति के साथ दिल्ली आ गईं. साहिर मुंबई में रहने लगे.
बंटवारे के दौरान अमृता प्रीतम गर्भवती थी और उन्हें सब छोड़कर 1947 में लाहौर से भारत आना पड़ा. उस समय सरहद पर हर ओर बर्बादी के मंज़र था. तब ट्रेन से लाहौर से देहरादून जाते हुए उन्होंने काग़ज़ के टुकड़े पर एक कविता लिखी. उन्होंने उन तमाम औरतों का दर्द बयान किया था जो बंटवारे की हिंसा में मारी गईं, जिनका बलात्कार हुआ, उनके बच्चे उनकी आँखों के सामने क़त्ल कर दिए गए या उन्होंने बचने के लिए कुँओं में कूदकर जान देना बेहतर समझा. बरसों बाद भी पाकिस्तान में वारिस शाह की दरगाह पर उर्स पर अमृता प्रीतम की ये कविता गाई जाती रही.
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बंटवारे के बाद 1949 में पहली ही फिल्म Azadi Ki Raah Par (1949) से साहिर के गीत इतने पॉपुलर हुए कि फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
अमृता अपने प्यार के लिए शादी तोड़ने को तैयार थीं. बाद में वो पति से अलग भी हो गईं. दिल्ली में एक लेखिका के तौर पर वो अपनी पोजीशन और शोहरत को भी साहिर के लिए कुर्बान करने को तैयार थीं.
साहिर ने अमृता को जहन में रखकर कई नज्में, गीत, शेर लिख डाले. वहीं अमृता प्रीतम ने भी अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में खुलकर साहिर से इश्क का इजहार किया... मगर, साहिर कभी अमृता को पूरी तरह अपनाने के लिए तैयार नहीं हो सके. फिर भी अमृता से अपनी मोहब्बत को लेकर उन्होंने 1964 में आई फिल्म दूज का चांद में एक गीत लिखा था...
महफ़िल से उठ जाने वालो
तुम लोगो पर क्या इलज़ाम
तुम आबाद घरो के बासी
मैं आवारा और बदनाम
मेरे साथी मेरे साथी
मेरे साथी खाली जाम
मेरे साथी खाली जाम
अमृता के साथ अपने रिश्ते में साहिर ने खुद को लुटे-पिटे, हारे हुए आशिक के तौर पर पेश किया. मगर मोहब्बत का ये सिलसिला उस वक्त टूट गया था, जब साहिर, 1960 में गायिका सुधा मल्होत्रा (Singer Sudha Malhotra) पर फिदा हो गए थे.
इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में इमरोज ने अमृता के साथ अपने रिश्ते का किस्सा बताते हुए कहा था कि साहिर संग अमृता का रिश्ता भ्रम से भरा था लेकिन उनके साथ वह हकीकत की दुनिया में था. साहिर ने कभी अमृता के प्यार की परवाह नहीं की...
एक दूसरी वजह साहिर की मां (सरदार बेगम) से बेहद करीबी थी... साहिर को अकेली मां ने ही पाला था... लेकिन अगर कोई एक महिला थी जो साहिर को शादी तक लेकर आ सकती थीं तो वह अमृता ही थीं, सुधा इसमें कहीं नहीं थी...
साहिर की जीवनी, साहिर: अ पीपुल्स पोएट, लिखने वाले अक्षय मानवानी कहते हैं कि अमृता वो इकलौती महिला थीं, जो साहिर को शादी के लिए मना सकती थीं. एक बार साहिर लुधियानवी ने अपनी मां सरदार बेगम से कहा भी था, 'वो अमृता प्रीतम थी. वो आप की बहू बन सकती थी'.
जब साहिर और अमृता के बीच इश्क उफान पर था, तो अमृता ने एक कहानी लिखी. इसमें उन्होंने साहिर से अपनी पहली मुलाकात का जिक्र किया था. अमृता को उम्मीद थी कि साहिर इस बारे में जबान से नहीं तो कलम से तो कुछ बोलेंगे. मगर साहिर तो साहिर थे. वो खामोश ही रहे. न तो उन्होंने अपने दोस्तों से कुछ कहा. न ही कुछ लिखा.
बाद में साहिर ने अमृता को बताया कि उन्हें वो कहानी पसंद आई थी. मगर, वो इसलिए खामोश रहे क्योंकि उन्हें डर था कि कुछ कहेंगे या लिखेंगे तो मजाक न बन जाएं...
रसीदी टिकट में साहिर के बारे में अमृता लिखती हैं- “वो चुपचाप मेरे कमरे में सिगरेट पिया करता. आधी पीने के बाद सिगरेट बुझा देता और नई सिगरेट सुलगा लेता. जब वो जाता तो कमरे में उसकी पी हुई सिगरेटों की महक बची रहती. मैं उन सिगरेट के बटों को संभालकर रख लेती और अकेले में उन बटों को दोबारा सुलगाती. जब मैं उन्हें अपनी उंगलियों में पकड़ती तो मुझे लगता कि मैं साहिर के हाथों को छू रही हूं. इस तरह मुझे भी सिगरेट पीने की लत लग गई.”
उस समय के एक मशहूर कवि/गीतकार, जयदेव द्वारा उन्हें बताई गई एक घटना का जिक्र करते हुए फिल्ममेकर विनय शुक्ला ने कहा कि कैसे एक बार 1970 के दशक में एक गीत पर साथ काम करते हुए, जयदेव ने मेज पर एक गंदा कप देखा और कहा कि इसे साफ करने की जरूरत है... साहिर ने तुरंत ही कहा... नहीं इसे ऐसे ही रखा है.. यही वह प्याला है जिसमें अमृता ने तब कॉफी पी थी, जब वह आखिरी बार उनसे मिलने आई थी.
साहिर और अमृता की प्रेम कहानी में प्यार है, दर्द, अपनाना, नुकसान, पश्चाताप, कामुकता सब है..
टूटी हुई अमृता को तब कलाकार और लेखक इंद्रजीत में प्यार मिला जिन्हें इमरोज़ के नाम से जाना गया... वे एक साथ रहे, वो भी 45 साल तक. इमरोज ने उनके सभी बुक कवर डिजाइन किए.
यह रिश्ता 1959 में बना, परवान चढ़ा और 45 साल तक फलता फूलता रहा... अमृता जब दुनिया से चली गईं, तब भी इमरोज अक्सर कहते कि आज भी हम दोनों साथ हैं...
अमृता ने इमरोज को जो पहला खत लिखा था... वह सिर्फ एक लाइन का था. यह खत इमरोज को तब मिला जब वह गुरुदत्त के साथ काम करने के लिए दिल्ली छोड़कर बंबई चले गए थे. वह एक लाइन का खत था-
बंबई अपने आर्टिस्ट को जी आयां (स्वागतम) करती है... इस खत में अमृता ने न तो इमरोज को किसी नाम से बुलाया और न ही अपना नाम लिखा... इमरोज अमृता को कई नामों से बुलाते थे.... आशी से लेकर बरकते तक. जो भी सुंदर लगता वह उन्हें उसी नाम से बुलाने लगते... जो भी पसंद आया, वही नाम रख देते.
एक रात बातें करते करते 2 बज गए. उन दिन सुबह से ही अमृता के कंधे में दर्द था. वह बिस्तर पर लेटी हुई थीं और इमरोज खिड़की पर बैठे थे. तभी अचानक ऐसा हुआ जैसे कोई बात बन गई हो. एक किताब की बात, अमृता एकदम उठकर बैठ गईं. फाइल संभाली और उसी वक्त बिस्तर पर बैठे किताब लिखने लगी... इमरोज हैरान थे... अमृता एकदम ताजा और स्वस्थ दिख रही थी, दर्द जैसे दूर हो गया हो. इमरोज हैरानी से उठे और चाय बनाने लगे. फिर चाय का प्याला अमृता के हाथ में थमाते हुए बोले- तुम किसपर गई हो?
तो अमृता ने जवाब दिया- खुदा पर...
आखिरी खत, अमृता ने साहिर के लिए लिखा... लेकिन कहीं साहिर नाम नहीं लिखा... 1956 में अमृता ने इसे उस साल लिखा जिस साल वह इमरोज से मिली थी. तब इमरोज उर्दू पत्रिकाओं शमा और आईना के लिए काम करते थे. आखिरी खत जब आईना में छपने के लिए आया तो इमरोज ने अमृता से पूछा- यह खत तुमने किसके लिए लिखा है, अगर तुम कहो तो उसकी भी तस्वीर बना दूं...
तब अमृता कुछ कह न सकी थीं... ये एक ऐसा प्यार था जिसके तीनों किरदार इससे वाकिफ थे लेकिन कभी किसी के सामने खुलकर कुछ न बोले... अमृता जितने साल इमरोज के साथ रही, उनकी पीठ पर साहिर लुधियानवी का नाम लिखा करती थीं...
साहिर अटूट था, वह प्यार जिसके लिए अमृता तरसती रही और वह उन्हें कभी नहीं मिला, और इमरोज़ सागदी से भरे एक पार्टनर बनकर रहे... साहिर के प्रति अमृता के प्यार को जानने के बावजूद, इमरोज उनके लिए अपने प्यार की गहराई समझते थे... साहिर और इमरोज भी अच्छे दोस्त रहे.
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31 अक्तूबर 2005 को अमृता ने आख़िरी सांस ली. लेकिन इमरोज़ के लिए अमृता अब भी उनके साथ हैं. उनके बिल्कुल क़रीब. इमरोज़ कहते हैं- ”उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं. वो अब भी मिलती है कभी तारों की छांव में कभी बादलों की छांव में कभी किरणों की रोशनी में कभी ख़्यालों के उजाले में हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना अपना कलाम सुनाते हैं उसने जिस्म छोड़ है साथ नहीं…”.
चलते चलते आज की दूसरी घटनाओं पर भी एक नजर डाल लेते हैं
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