Bahadur Shah Zafar : बहादुर शाह ज़फर - Bahadur Shah Zafar (1775-1862) भारत में मुग़ल साम्राज्य (Mughal Sultanate in India) के आखिरी शहंशाह, और उर्दू के जाने-माने शायर थे. उन्होंने 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (Indian Rebellion of 1857) में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया था. युद्ध में हार के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया. बर्मा में ही उनकी मृत्यु हुई. 21 सितंबर ही वह तारीख थी जब बहादुर शाह जफर ने स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों के सामने सरेंडर किया था.
अजमेर का अकबर किला (Akbar Fort in Ajmer)... मुगल सल्तनत को हिंदुस्तान के पश्चिमी छोर पर मजबूत बनाए रखने के लिए इस किले को बादशाह अकबर ने 1571 से 1574 के बीच बनवाया था... तब शायद अकबर को भी नहीं पता था कि यही किला मुगल सल्तनत (Mughal Sultanate) के अंत की नींव भी तैयार करेगा.
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आज से 400 साल पहले 10 जनवरी 1616 को इसी किले में मुगल बादशाह जहांगीर (Mughal Ruler Jahangir) ने ब्रिटेन सम्राट के दूत सर थॉमस रॉ (Sir Thomas Roe) के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए... मलहम बेचने के लिए भारत आई ब्रिटिश कंपनी ने भारत को जो दर्द दिया, उसे इतिहास में सदियों की गुलामी का नाम मिला.
1616 में जहांगीर ने खुली बाहों से अंग्रेजों का स्वागत किया था लेकिन 1857 में इसी शाही परिवार के बादशाह को अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया. और इस तरह अंत हुआ मुगल साम्राज्य का.
21 सितंबर ही वह तारीख है जब 1857 की क्रांति के बाद भारत में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने जान बख्श देने का भरोसा मिलने पर अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था... आज हम पलटेंगे इतिहास के इसी पन्ने को editorji के स्पेशल शो झरोखा में...
'दमदमे में दम नहीं, अब ख़ैर मांगो जान की
ऐ ज़फ़र! ठंडी हुई शमशीर हिन्दुस्तान की'
1857 में उर्दू जानने वाले एक अंग्रेज़ी पुलिस अफसर फिलिप ने बादशाह-ए-हिन्द बहादुर शाह ज़फर की गिरफ्तारी पर तंज कसते हुए यह शेर कहा था... तब ज़फ़र ने फ़ौरन जवाब दिया
'ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख़्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की'
इस घटना से 20 साल पहले जफर की जिंदगी अचानक बदली थी. 1837 का पतझड़ अपने उरूज पर था और भारत में सिर्फ नाम के सम्राट अकबर शाह द्वितीय मृत्युशय्या पर थे. उनके असल उत्तराधिकारी बेहद चिड़चिड़े जहांगीर बख्त कुछ साल पहले जब इलाहाबाद में थे तब चेरी ब्रांडी के ओवरडोज से दुनिया छोड़कर जा चुके थे. अब हिंदुस्तान का ताज जिस शख्स के सिर पर रखा जाना था वह थे राजा के सबसे बड़े बेटे अबू जफर यानी बहादुर शाह जफर.
वैसे अबू जफर इस गद्दी के लिए पहली पसंद नहीं थे उनके पास न तो हुक्मरान बनने का जुनून था और न ही सत्ता की कोई ख्वाहिश. फिर भी, सितंबर 1837 में 61 साल के जफर पिता के इंतकाल के बाद राजगद्दी पर बैठे. बहादुर शाह जफर अब एक धराशायी होते मुगल साम्राज्य के बादशाह थे.
फारसी में जफर शब्द का मतलब 'जीत' होता है. जफर वह एक कवि और कलाकार थे. जफर बेहद सादे समारोह में शाही शिखर पर बैठे थे.
अब लौटते हैं 20 साल बाद के दौर पर. 1857 में जब पहला स्वतंत्रता संग्राम हुआ था तब तक जफर को बादशाह बने 20 साल गुजर चुके थे.
11 मई 1857 की सुबह, मेरठ से शुरू हुई विद्रोह की आंच दिल्ली पहुंच गई. दिल्ली के कई हिस्सों में विद्रोह हुआ. जब क्रांतिकारियों ने इस नाजुक मोड़ पर बहादुर शाह जफर से संपर्क किया, तब वह इसे लेकर जुनूनी नहीं थे. आखिर में वह बेमन से ही सही लेकिन 1857 के विद्रोह का नेता बनने के लिए सहमत हो गए.
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दिल्ली पर क्रांतिकारियों ने कब्जा कर लिया. बरेली के बहादुर बख्त खां (Bakht Khan) के हाथ सेना की बागडोर आ गई थी. 2 जुलाई 1857 को बख्त खां ने अपनी सेना के साथ दिल्ली में प्रवेश किया. आदेश जारी हुआ कि कोई भी शहरी बगैर हथियार के न रहे, जिसके पास हथियार न थे, उन्हें मुफ्त में दिए गए.
लेकिन अंग्रेज कहां मानने वाले थे... वे मुगल सल्तनत नेस्तनाबूद करने के इरादे से दिल्ली पर दोबारा कब्जे की कोशिश में जुट गए... कैप्टन विलियम हॉडसन (Captain William Stephen Raikes Hodson) ने जफर के समधी मिर्जा इलाहीबख्श (Mirza Ilahi Bakhsh) को अपने साथ मिला लिया. उसने किले की हर बात को अंग्रेजों तक पहुंचाना शुरू कर दिया.
वहीं, दिल्ली के पूर्वी इलाके में राजा नाहरसिंह (Raja Nahar Singh) मोर्चे पर थे. उसने चौकियां बनवाकर रक्षक और गुप्तचर नियुक्त किए. अंग्रेजों ने दिल्ली पर पूर्व की ओर से हमले की हिम्मत नहीं जुटाई लेकिन बाकी मोर्चों पर वे डटे रहे.
14 सितंबर को कंपनी की सेना ने दिल्ली पर कई दिशाओं से हमला किया. घमासान लड़ाई के बाद क्रांतिकारी सेना बिखरने लगी... सम्राट जफर खुद को बचाने के लिए हुमायूं के मकबरे (Humayun's Tomb) में आ गए. यहां बख्त खां की सेना डेरा डाले हुए थी. राजा नाहरसिंह ने बहादुरशाह जफर से बल्लभगढ़ चलने को कहा लेकिन इलाहीबख्श ने एक न चलने दी और उसके आग्रह से बहादुरशाह हुमायूं के मकबरे में रुके रहे.
बख्त खां ने भी कई कोशिश की लेकिन जब बादशाह शहर से बाहर जाकर मोर्चा बनाने को राजी न हुए तो वह वहां से चला गया. बख्त खां के जाते ही हॉडसन ने घेराबंदी बढ़ा दी. जान बख्शने की शर्त पर बहादुरशाह (Bahadur Shah Zafar), बेगम जीनतमहल (Begum Zeenat Mahal) ने आत्मसमर्पण कर दिया... इनके साथ शहजादे जवांबख्त को गिरफ्तार कर लिया गया.
जब ज़फ़र और हॉडसन का आमना-सामना हुआ तो जफर ने उससे पूछा, क्या आप ही हॉडसन बहादुर हैं? क्या आप मुझसे किए गए वादे (जान बख्श देने) को मेरे सामने दोहराएंगे? हॉडसन ने उत्तर दिया, हां... सरकार को ये बताते हुए खुशी हो रही है कि अगर आपने हथियार डाल दिए तो आप, ज़ीनत महल और उनके बेटे के जीवन को बख़्श दिया जाएगा. लेकिन अगर आपको बचाने की कोशिश हुई तो मैं इसी जगह आपको कुत्ते की तरह गोली से उड़ा दूंगा.'
सम्राट के दो बेटों मिर्जा मुगल, मिर्जा खिज्र सुल्तान (Mirza Mughal, Mirza Khizr Sultan) और एक पोता मिर्जा अबू बकर (Mirza Abu Bakr) हुमायूं के मकबरे में ही रह गए थे. एक दिन बाद इन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया... इन्होंने जान बख्श देने की गुहार लगाई थी लेकिन हॉडसन ने ऐसे किसी भी भरोसे को देने से इनकार कर दिया... हॉडसन ने इन तीनों को गिरफ्तार किया और रथ पर बैठाकर ले चला... इलाहीबख्श और दो मुहासिब भी साथ थे.
द सीज ऑफ़ डेल्ही' लिखने वाले अमरपाल सिंह ने BBC को बताया था कि जब वो दिल्ली से एक मील दूर थे हॉडसन ने लेफ़्टिनेंट मेक्डॉवेल से पूछा, इन शहज़ादों का क्या किया जाए? मेक्डॉवेल ने जवाब दिया 'मैं समझता हूँ, हमें उन्हें यहीं मार देना चाहिए.' शहज़ादों को रथ से उतरने और अपने बाहरी कपड़े उतारने के लिए कहा.
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कपड़े उतारने के बाद उन्हें फिर से रथ पर चढ़ा दिया गया. उनसे उनके ज़ेवर, अंगूठियाँ, बाज़ूबंद और रत्नों से जड़ी तलवारें भी ले ली गईं. हॉडसन ने रथ के दोनों तरफ़ पाँच पाँच सैनिक तैनात कर दिए. तभी हॉडसन अपने घोड़े से उतरे और अपनी कोल्ट रिवॉल्वर से हर शहज़ादे को दो दो गोलियाँ मारीं. उन सब की वहीं मौत हो गई.'
जफर ने बाद में इस लम्हें का यूं जिक्र किया-
ऐ वाए इंक़लाब ज़माने के जौर से ।
दिल्ली 'ज़फ़र' के हाथ से पल में निकल गई।।
27 जनवरी 1858 को लाल किले में विद्रोह, राजद्रोह और हत्या के आरोप में बहादुर शाह जफर पर मुकदमा शुरू हुआ. यह करीब दो महीने तक चला. जफर को दोषी ठहराया गया और काउंसिल में गवर्नर जनरल द्वारा तय की गई जगह पर निर्वासित करने की सजा सुनाई गई.
4 दिसंबर 1858 को, जफर को परिवार के साथ 'मगोएरा' जहाज पर डायमंड हार्बर से रंगून ले जाया गया. 10 दिसंबर 1858 को परिवार वहां पहुंचा. रंगून पहुंचने के बाद जफर और उसके परिवार के सदस्यों के रहने के लिए शुरू में टेंट बनाया गया. बाद में उनके स्थायी निवास के लिए सागौन का एक घर बनाया गया.
"बूढ़े और कमजोर पूर्व बादशाह," आमतौर पर घर के ऊपरी हिस्से के बरामदे में बैठते थे. उसने राहगीरों को और जहाजों को देखते. यह आम जेल से अलग थी. हालांकि, जफर इस दौरान कलम, स्याही, कागज इस्तेमाल नहीं कर सकते थे.. जनता को उनसे मिलने की अनुमति नहीं थी.
बहादुर शाह जफर को जब रंगून लाया गया था, तब वह 83 वर्ष के थे. वहां रहने के दौरान उनका स्वास्थ्य और बिगड़ता गया... उन्हें गले में लकवा हो गया... आखिर में 7 नवंबर 1862 को उनकी मृत्यु हो गई. उन्हें रंगून में ही दफ्न किया गया.
एक कवि ज्यादा और थोड़े बादशाह... बहादुर शाह जफर अपने आखिरी दिनों में जो नज्म गुनगुनाते थे, उसकी आखिरी लाइनें थीं.
कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए |
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥
चलते चलते 21 सितंबर को हुई दूसरी घटनाओं पर एक नजर डाल लेते हैं
1743 - आमेर के वीर और कूटनीतिज्ञ राजा सवाई जयसिंह (Raja Sawai Jai Singh) का निधन हुआ
1954 – जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो अबे (Shinzo Abe) का जन्म हुआ था
1942 - नाजियों ने यूक्रेन के डुनेवट्सी में 2588 यहूदियों की हत्या की