Bal Thackeray: महाराष्ट्र में शिवसेना अपनी मुस्लिम विरोधी राजनीति के लिए जानी जाती है. शिवसेना (Shiv Sena) के संस्थापक बाला साहब ठाकरे के मुस्लिम विरोधी तेवर लोग आज भी नहीं भूले हैं. लेकिन एक वक्त था जब हिंदू ह्रदय सम्राट कहे जाने वाले बाल ठाकरे ने मुस्लिम लीग (Indian Union Muslim League) से हाथ मिला लिया था. बाल ठाकरे ने ऐसा क्यों किया था और इसकी वजह क्या थी? आइए जानते हैं आज के एपिसोड में...
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1941 से 1951 के बीच मुंबई में साढ़े 9 लाख प्रवासी बढ़ गए थे. इसके बाद के दशक यानी 1951-61 में यह आंकड़ा 6 लाख रहा. 1951 में मुंबई की कुल आबादी में दूसरे राज्यों से आए लोगों का प्रतिशत 72.1 था. 1961 में ये 64.5 फीसदी थी. 1950 में डीके लकड़ावाला ने एक सर्वे किया और इसे किताब Wages and Well Being in an Indian Metropolis में छापा.
इसमें उन्होंने बताया था कि तब 500-1000 रुपये कमाने वाले कुल बंबईया परिवारों में सिर्फ 4 फीसदी महाराष्ट्री थे. इसमें 7.9 फीसदी परिवार दक्षिण भारतीय थे और 10.2 फीसदी गुजराती थे. अगर हम इससे लगभग एक सदी पीछे जाएं, तो 1875 में म्युनिसिपल काउंसिल में महाराष्ट्रियों की भागीदारी 12 फीसदी थी जबकि शहर में उनकी आबादी 50 फीसदी थी.
इसी बात को क्षेत्रीय असमानता से जोड़कर 19 जून 1966 को बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना नाम से एक राजनीतिक संगठन बना डाला था...1947 में जब देश आजाद हुआ था तब बाल ठाकरे 20-21 साल के एक नौजवान थे. उन्होंने मुस्लिमों द्वारा पाकिस्तान की मांग करने और राष्ट्र बना डालने को करीब से देखा था... सो, मुस्लिमों को लेकर भी उनके मन में नफरत घर कर गई थी...
शिवसेना ने गठन के बाद क्षेत्रीयता की बात को जोर शोर से उठाया. पहले दक्षिण भारतीयों और फिर उत्तर भारतीयों पर हमले किए... लेकिन धीरे धीरे उसकी राजनीति शिफ्ट हो गई मुस्लिम विरोध (Bal Thackeray's Anti Muslim Politics) में... आज शिवसेना और उसके संस्थापक बाल ठाकरे का जिक्र इसलिए क्योंकि आज ही के दिन साल 2012 में बाल ठाकरे का निधन हुआ था.
बीजेपी अपनी स्थापना के बाद पहली बार 1984 लोकसभा चुनाव लड़ रही थी. इस चुनाव में उसने शिवसेना से गठजोड़ किया था. मराठी मानुष के मुद्दे पर राजनीति शुरू करने वाले शिवसेना ने 1984 से कुछ साल पहले इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) की मदद लेकर चुनाव लड़ा था.
शिवसेना संस्थापक और हिंदू ह्रदय सम्राट कहे जाने वाले बाल ठाकरे ने तब IUML नेता गुलाम मोहम्मद बनतवाला (Ghulam Muhammad Banatwala) के साथ मंच भी साझा किया था. बनतवाला शिवसेना के तगड़े विद्रोही थे. 1970 में शिवसेना ने मुस्लिम लीग की मदद इसलिए ली थी ताकि पार्टी का मेयर बनाया जा सके.
लीग के पूर्व सदस्यों ने कुछ साल पहले एक समाचार वेबसाइट को बताया था कि दो फायरब्रांड स्पीकर्स को साथ लाने के लिए ये एक मास्टरस्ट्रोक था. जो एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते थे, 1978 में एक रैली में साथ नजर आए थे. ये नागपाड़ा के पास मस्तान तलाव मैदान (Mastan Talab Maidan) था. ये पूरा इलाका मुस्लिम बाहुल्य है.
कांग्रेस के नेता सैयद मोहम्मद जैदी ने पार्टी छोड़कर मुस्लिम लीग की सदस्यता ले ली थी. वह राज्य में नेताओं की बयानबाजी से पैदा हो रहे तनाव के हालात को देखकर व्यथित थे. जैदी ने ही बनतवाला को ठाकरे के साथ मंच साझा करने के लिए तैयार किया था. इस रैली में हजारों लोग शामिल हुए थे. मुस्लिम लीग के पूर्व पार्षद और बाद में अंजुमन ए इस्लाम के वाइस प्रेसिडेंट रहे मोहम्मद हुसैन पटेल ने ये जानकारी दी थी.
पटेल ने बताया था कि ठाकरे रैली में सबसे आखिरी में भाषण देना चाहते थे लेकिन बनतवाला ने ये बात नहीं मानी. रैली में बनतवाला ने सबसे आखिरी में भाषण दिया था. रैली में ठाकरे ने कहा था कि अगर मुस्लिम जय महाराष्ट्र कहते हैं, तो हिंदू उनके करीब आएंगे. बनतवाला ने तब अपने भाषण में कहा था कि मुस्लिम जय महाराष्ट्र उस वक्त से बोल रहे हैं, जब शिवसेना का जन्म भी नहीं हुआ था.
बनतवाला और ठाकरे की मुलाकात से उत्साहित सैयद नजर हुसैन ने दोनों को मीरा रोड पर मुस्लिम कालोनी नया नगर के उद्घाटन पर भी बुलाया था. एक समय में मुस्लिम लीग में रहे पूर्व विधायक सोहेल लोखंडवाला ने इस मुलाकात को दो ध्रुवों का मिलना बताया था. सांप्रदायिक भाषणों से उपजे तनाव के माहौल को इस रैली ने काफी हद तक कम कर दिया था. तब बीएमसी में 11 मुस्लिम लीग सदस्यों ने मनोहर जोशी और सुधीर जोशी को मेयर पद के लिए वोट किया था.
इस किस्से के दशकों बाद जब अयोध्या में बाबरी विध्वंस हुआ तब मुंबई में भी उसकी लपटें पहुंची थीं. सांप्रदायिक हिंसा की भेंट कई अल्सपंख्यक चढ़ गए थे. ये तब देश का उस वक्त तक का सबसे भीषण दंगा था. आम जनता दोनों पक्षों के साजिशकर्ताओं को जानना चाहती थी. अंडरवर्ल्ड ने जहां मुस्लिम समुदाय में प्रतिशोध की भावना भड़काई थी, वहीं बाल ठाकरे और शिवसेना ने हिंदू समुदाय को उद्वेलित किया था.
इसी घटना पर आधारित एक फिल्म 1995 में बनी थी बॉम्बे. मनीषा कोइराला और अरविंद स्वामी इसमें अहम भूमिकाओं में थे. मुंबई दंगों के बीच फिल्म की कहानी अंतरधार्मिक विवाह के इर्द-गिर्द घूम रही थी. मुंबई में शिवसेना के वर्चस्व की वजह से तब फिल्म मुश्किलों में घिर गई थी लेकिन तब इस मामले को सुलझाने के लिए फिल्म के हिंदी वर्शन के डिस्ट्रिब्यूटर अभिनेता अमिताभ बच्चन ने ठाकरे और फिल्मेकर मणि रत्नम की मुलाकात कराई थी जहां फिल्म की स्क्रीनिंग भी हुई थी.
बाल ठाकरे ने कुछ कट के लिए कहा और उसके बाद फिल्म रिलीज को हरी झंडी दे दी. टीनू आनंद को फिल्म के एक दृश्य में शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के रूप में दिखाया गया जो फिल्म में दंगे उकसाते दिखाई दे रहे हैं. जबकि एक दूसरे सीन में वह दंगे की घटना पर पछतावा करते हैं. फिल्म में टीनू आनंद का हुलिया हूबहू बाल ठाकरे से मेल खाता दिखाई दिया. इसी वजह से शिवसेना और भड़की.
हालांकि, बाल ठाकरे ने घटना पर पछतावे की बात पर प्रतिक्रिया देकर सभी विरोध को शांत कर दिया था.. द टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, उन्होंने जो कुछ किया उसपर उन्हें पछतावा नहीं है, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया.
न चाहते हुए भी, मणिरत्नम को दबाव के आगे झुकना पड़ा. इंडिया टुडे ने उनके हवाले से लिखा, 'फिल्म का सीन कट करना तकलीफदेह होता है….लेकिन यह करना पड़ा.' फिल्म को जबरदस्त समीक्षाएं और विरोध दोनों मिली. भोपाल, धारवाड़, हैदराबाद, हुबली, मेरठ में फिल्म का विरोध हुआ था.
कट्टर हिंदुओं और मुसलमानों ने फिल्म का कड़ा विरोध किया. ऐसा इसलिए क्योंकि इसमें 'लव जिहाद' दिखाया गया था. इस घटना ने बाल ठाकरे की छवि को एक कठोर और निर्दयी नेता के रूप में और मजबूत किया, जो हिंदुत्व और 'मराठी मानुस' के लिए हमेशा खड़ा था, चाहे नतीजा कुछ भी हो. दंगों में संलिप्तता और मुस्लिम समुदाय के खिलाफ खुलकर दिए बयानों ने ही बालासाहेब ठाकरे और शिवसेना की जमीन को तैयार किया.
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