Freebie Culture : हमारे देश में इन दिनों ‘रेवड़ी कल्चर’ या मुफ्त कल्चर को लेकर काफी शोर-शराबा चल रहा है. कई जानकार यह तर्क देते हैं कि राजनीतिक पार्टियों की इस तरह की घोषणा या स्कीम से देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ रहा है. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी, कई देशों में छात्रों के लिए पीएचडी तक की पढ़ाई मुफ़्त होती है. जबकि बेरोजगारों को सैलरी दी जाती है. यानी मुफ्त कल्चर के मामले में भारत इन देशों के आसपास तक नहीं फटकता है. लेकिन भारत में राजनीतिक कारणों से इसपर शोर बहुत ज्यादा हो रहा है.
एक नजर विश्व के उन देशों पर जहां नागरिकों से भारी टैक्स तो लिया जाता है लेकिन उसके बदले में जो सुविधा मिलती है वह भारत में सोचा भी नहीं जा सकता.
भारत में फिलहाल बिजली-पानी (subsidised electric and water supply) और ईंधन पर सब्सिडी देने को लेकर राजनीतिक दलों के बीच चल रही जुबानी जंग सुप्रीम कोर्ट (Supreme court) तक पहुंच गई. जबकि यूरोपीय देशों में मुफ्त शिक्षा, मुफ्त ईलाज़ और आवासीय भत्ते आदि भी मिलते हैं...
और पढ़ें- Har Ghar Tiranga कैंपेन के बहिष्कार का हक, लेकिन नरसिंहानंद ने 'हिंदुओं का दलाल' क्यों बोला?
अमेरिका में किसी शख्स की नौकरी जाने की स्थिति में सोशल सिक्योरिटी अलाउंस देने का प्रावधान है. फिनलैंड, स्वीडन और डेनमार्क समेत कई देशों में शिक्षा और इलाज बिना किसी भेदभाव के सबके लिए पूरी तरह मुफ्त है. यानी सर्दी-जुकाम से लेकर ऑर्गन ट्रांसप्लांट तक सब कुछ मुफ्त.
बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इस फ्री कल्चर पर रोक लगाने को कहा. इस मामले की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायधीश एनवी रमणा की अगुवाई वाली बेंच ने पहली सुनवाई में कहा था कि मुफ्त का प्रावधान एक गंभीर आर्थिक मुद्दा है और चुनाव के समय “फ्री स्कीम का बजट” नियमित बजट से भी ऊपर चला जाता है. बेंच ने चुनाव आयोग से इस मामले में एक दिशा-निर्देश तैयार करने को कहा था, लेकिन चुनाव आयोग ने जवाब दिया था कि क़ानून के अभाव में, वो सत्ता में आने वाले राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त बेनिफिट देने के वादों को रेगुलेट नहीं कर सकता.
और पढ़ें- UP Police : रोटी दिखाते हुए फूट-फूट कर रोने वाले कॉन्स्टेबल की नौकरी बचेगी या जाएगी?
वर्तमान बहस इस बात को लेकर है कि जनता को उनके टैक्स के पैसे से मूलभूत सुविधाएं मुफ्त देना या वोटबैंक के हिसाब से इस्तेमाल करना ठीक है या ग़लत? इस बहस में जानें से पहले यह जान लें कि दूसरे देश अपने नागरिकों को मुफ़्त सुविधाएं देने के लिए क्या करते हैं और नागरिकों के लिए क्या मुफ्त में उपलब्ध करा रहे हैं?
फिनलैंड में PHD तक की पढ़ाई मुफ्त
यूरोप के फिनलैंड में सभी व्यक्तियों के लिए फिर चाहे वह देश का नागरिक हो या बाहरी, सभी के लिए नर्सरी से PHD तक की पढ़ाई पूरी तरह फ्री है. उसपर कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है. ऐसा सिर्फ सरकारी संस्थानों के लिए नहीं है, बल्कि प्राइवेट संस्थान भी पढ़ाई के बदले में पैसे नहीं लेते हैं.
वहीं अगर भारत की बात करें तो यहां सरकारी स्कूलों में मुफ़्त शिक्षा की व्यवस्था है. साल 2020-21 के आंकड़ों के मुताबिक हमारे देश में 10.32 लाख़ सरकारी स्कूल हैं. जबकि सिर्फ प्राइमरी स्कूल में 12 करोड़ से ज्यादा छात्र हैं. यानी आबादी के हिसाब से सरकारी स्कूलों की संख्या बेहद कम हैं. जो स्कूल मौजूद हैं वह इंफ्रास्ट्रक्चर और स्टाफ की कमी से जूझ रहा है. इस गैप को पूरा करने के लिए प्राइवेट स्कूलों को भी ज़िम्मेदारी से जोड़ा गया है लेकिन वहां की फीस बेहद ज़्यादा है.
और पढ़ें- Har Ghar Tiranga : तिरंगा खरीदो तभी मिलेगा राशन, अधिकारी का ये कैसा फरमान?
अब बात स्वास्थ्य सुविधा की करते हैं. यूरोप, मध्य एशिया, एशिया और उत्तरी अमेरिका के 16 देशों में नागरिकों के लिए हर तरह का इलाज मुफ्त है.
यूके की पूरी स्वास्थ्य सेवा नेशनल हेल्थ सर्विस देखता है. वहीं अगर भारत की बात करें तो यहां स्वास्थ्य सुविधाएं मुफ़्त नहीं हैं. 50 करोड़ लोगों को सरकार की तरफ से बीमा कवर मिलता है. सरकारी अस्पतालों में इलाज थोड़ा सस्ता ज़रूर है लेकिन यहां सालों भर भयंकर भीड़ होती है. इसके साथ ही यहां पर सुविधाओं का भयंकर आभाव रहता है.
ये तो हुई शिक्षा और स्वास्थ्य की बात, अब बात आवासीय भत्ते की करते हैं. नीदरलैंड्स, फिनलैंड, स्वीडन, हंगरी और आयरलैंड जैसे देशों में ही रेंट बेनीफिट यानी कि किराया सुविधा मौजूद है. सबसे पहले इसकी शुरुआत नीदरलैंड्स ने "ह्यूरटोसलैग" योजना नाम से की थी. रेंट बेनिफिट योजना के तहत इन देशों की सरकारें लोगों की आय के आधार पर किराया का कुछ हिस्सा देती है. हंगरी और आयरलैंड जैसे देशों में 70 प्रतिशत ग़रीबों को यह सुविधा मिलती है.
वहीं अगर भारत की बात करें तो आंकड़ों के मुताबिक यहां की तीस प्रतिशत आबादी किराये के मकानों में रहती है. हालांकि यहां सरकार की तरफ से मकान किराए के तौर पर कोई मदद नहीं मिलती. हां किराया चुकाने वाले लोगों को टैक्स बेनीफिट्स ज़रूर मिल जाता है. इसके साथ ही घर खरीदने के लिए बैंक से होम लोन लेने पर ब्याज़ में सब्सिडी या टैक्स बेनीफिट्स जरूर मिलता है. लेकिन घर जितना महंगा है, उस हिसाब से यह छूट नाकाफी जान पड़ते हैं.
और पढ़ें- Cyber Crime: सेक्सुअल हैरेसमेंट केस 6300%, साइबर क्राइम 400% बढ़े! कहां जा रहा 24 हजार करोड़?
बेरोजगारी भत्ता को लेकर डेनमार्क का जो रवैया है वह पूरे विश्व के लिए नज़ीर है. यहां पर अगर किसी शख़्स की नौकरी जाती है तो दो सालों तक सरकार उसे बेरोजगारी भत्ता देती है. जिससे कि ना केवल वह अपने परिवार का भरण पोषण कर सके, बल्कि अपने लिए नौकरी भी ढूंढ़ सके. आप सोच रहे होंगे बेरोजगारी भत्ते के नाम पर सरकार कितना दे देती होगी? मेरा जवाब सुनकर आप चौंक सकते हैं. क्योंकि डेनमार्क किसी शख़्स की नौकरी जाने पर अंतिम सैलरी का 90 प्रतिशत हिस्सा बतौर भत्ता देता है.
वहीं यूएसए में बेरोजगारी भत्ता अगली नौकरी नहीं मिलने तक दी जा जाती है. भत्ता करीब 22 हजार रुपये प्रति हफ़्ते की दर से मिलती है. सोचिए क्या भारत जैसे देश में बेरोजगारी भत्ता के तौर पर 22 हजार रुपये प्रति महीना भी कल्पना की जा सकती है. इतना ही नहीं अमेरिका में ज़रूरतमंद परिवारों को अलग से सहायाता मिलती है, जो हमेशा के लिए जारी होता है. कम आमदनी वाले परिवार जिनके घर में 18 साल से कम उम्र का बच्चा हो या फिर गर्भवती महिला हो, उन्हें TANF स्कीम के तहत घर, बिजली और ग्रॉसरी तक की सुविधा दी जाती है.
वहीं यूके में नौकरी जाने के बाद अगले छह महीने तक 6500 रुपये प्रति हफ्ते की दर से भत्ता मिलता है. स्वीडन में किसी भी नौकरी पेशा इंसान को पांच सालों तक पेंशन दिया जाता है. एक नज़र विश्व के उन देशों पर डालते हैं जहां बेरोजगारी के नाम पर भत्ता मिलता है.
हालांकि भारत में इस तरह की कोई सेंट्रलाइज्ड योजना तो नहीं है लेकिन कई राज्य सरकारें दिव्यांगों, विधवाओं और वृद्धों को मदद के तौर पर कुछ पैसे देती है. केंद्र और राज्य सरकार की सरकारी नौकरी में भी पेंशन की सुविधा मिलती रही है. लेकिन उसे भी धीरे-धीरे ख़त्म किया जा रहा है. निजी नौकरी में पेंशन तो नहीं है लेकिन EPF स्कीम के तहत पेंशन फंड कवर्ड होता है.
आपके मन में सवाल उठ रहे होंगे कि ये सरकारें अपने नागरिकों को इतनी सारी सुविधाएं कैसे दे देती हैं? तो इसका जवाब है- फिनलैंड, जर्मनी और स्वीडन में आय का 50 प्रतिशत टैक्स में चला जाता है. हालांकि इन्हीं टैक्स के पैसों से लोगों को मिलने वाली सुविधा की गुणवत्ता सुधारी जाती है. हालांकि हमारे देश में टैक्स दोनों तरह से ली जाती है, डायरेक्ट टैक्स और इनडायरेक्ट टैक्स लेकिन सुविधा के नाम पर हमें दूसरे देशों की तुलना में कुछ नहीं मिलता.