How did China conquer Tibet? : 'Seven Years in Tibet' 25 साल पुरानी फ़िल्म है. फ़िल्म, 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध (World War II) के दौर को दिखाती है. कहानी ऑस्ट्रियन माउंटेनियर Heinrich Harrer की है जिसे Brad Pitt ने निभाया है. माउंटेनियर Heinrich Harrer को नंगा पर्वत (वर्तमान पाकिस्तान) के शिखर पर नाज़ी ध्वज फ़हराने के लिए भेजा जाता है.
वह पीछे छोड़ आता है पत्नी और उसके गर्भ में पल रही संतान को. जान की बाज़ी लगाकर टीम से जितना बन पड़ता है करती है और फिर ऑपरेशन अधूरा छोड़कर लौट आती है. वापसी में, वह जिस जमीन से गुजरते हैं वहां ब्रिटिश साम्राज्य का शासन था... जर्मनी की पहचान की वजह से गिरफ्तार कर लिया जाता है. इसके बाद उन्हें देहरादून में प्रिज़नर ऑफ वार कैंप लाया जाता है.
Heinrich Harrer कैंप से भागने की कई नाकाम कोशिश करता है. सात समंदर पार रहकर तलाक का दंश झेलता है, बच्चे को देखने की अधूरी ख्वाहिश उसे स्वार्थी और अकेला कर देती है. आखिर में एक ग्रुप की मदद से वह शातिर तरीके से कैंप से भाग निकलने में कामयाब हो जाता है. हालांकि ये द एंड नहीं है.
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इसके बाद, वह कई परेशानियों को झेलते, मंदिर से बलि की सामग्री चुराते, कच्चा मांस खाते, डकैतों के चंगुल से बचते एक ऐसे देश पहुंचते हैं जो दयालुपन और करुणा के सागर में डूबा हुआ है. उसके साथ रहता है उसका वही साथी जिसके नेतृत्व में वह कैंप से भागा था. पर इस नए देश में, यहां के लोग धरती में मौजूद कीड़ों को भी नहीं मारते, इस बात पर भरोसा करके कि वह पिछले जन्म में उनकी मां रही होगी.
बेहद शांत ये देश, बुद्ध के ज्ञान पर भरोसा करके अभिमान त्यागकर जीने वाले को अधिक सम्मान की दृष्टि से देखता है. ज्ञान, समर्पण भाव और अध्यात्म से भरे इस देश को उसका पड़ोसी ही अपना निवाला बना बैठता है और यह सब होता है, अब दलाई लामा के दोस्त बन चुके Heinrich Harrer की आंखों के सामने.
10 लाख से ज़्यादा लोगों को मार दिया जाता है, मठों को तबाह कर दिया जाता है, और शांति-दया का हर पाठ धरा का धरा रह जाता है. आज ये देश सिर्फ एक झंडे की पहचान तक सीमित है पर वतन से बेवतन हो चुके लाखों शरणार्थियों की कहानी असीमित है.
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देश दुनिया की ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित editorji हिन्दी की विशेष पेशकश झरोखा में आज हम जानेंगे इसी गुजरे इतिहास को. हम समझेंगे कि आखिर कैसे चीन ने तिब्बत पर कब्जा (How did China conquer Tibet?) किया...?
13वें दलाई लामा ने 1913 में तिब्बत के संदर्भ में कहा था कि हम एक छोटे, धार्मिक और स्वतंत्र राष्ट्र हैं लेकिन 40 साल बाद चीन ने न तो इन शब्दों का कोई मोल रखा और न ही अंतरराष्ट्रीय कानून का... तिब्बत चीन के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है. इसकी सीमाएं भारत, नेपाल, म्यांमार (बर्मा) और भूटान की सीमा से लगती हैं. हालांकि ये अब गुजरे दौर की बात है. आप कह सकते हैं कि 1960 के दौर से पहले ऐसा ही था, जब तक चीन ने इसपर कब्जा नहीं किया था.
तिब्बत के तीन मूल प्रांत यू-त्सांग, खाम और एमदो हैं. इन क्षेत्रों के सभी लोग खुद को तिब्बती मानते हैं. हालांकि सभी की अपनी एक पहचान और अलग बोली है. वैसा ही जैसे भारत में ओडिशा, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र आदि राज्यों की...
चीन के कब्जे में आने के बाद तिब्बत के प्रांतों को अजीब तरीके से बांट दिया गया. उन्हें नया नाम दिया गया और चीनी प्रांतों में शामिल कर दिया गया. जब चीन तिब्बत का रेफरेंस देता है तो इसका मतलब तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (Tibet Autonomous Region) या TAR होता है, जिसमें केवल यू-त्सांग और खाम का हिस्सा शामिल होता है. बाकी खाम को सिचुआन और युन्नान चीनी प्रांतों में बांट दिया गया है. अमदो को गांसु, सिचुआन और किंघई प्रांतों में बांटा गया.
तिब्बत जब अस्तित्व में था जब भौगोलिक क्षेत्र के हिसाब से दुनिया का 10वां सबसे बड़ा देश था.
एक राष्ट्र के रूप में तिब्बत का समृद्ध इतिहास रहा है. ये सदियों से चीन के साथ-साथ मौजूद है. 800 वर्षों से भी ज्यादा वक्त तक उसका अपना भुगोल, इतिहास, राजशाही रही है. 1950 में नए चीनी कम्युनिस्ट शासन ने फैसला लिया कि तिब्बत को पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का हिस्सा बनाए जाए और इसके बाद देश पर हमले शुरू किए गए.
संकट का दौर (1 जनवरी 1950 - 9 मार्च 1959) : चीन में कम्युनिस्ट शासन आने के बाद से उसकी मंशा विस्तारवाद की रही. 1 जनवरी 1950 को पहली बार पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) ने तिब्बती क्षेत्र पर अपनी संप्रभुता का दावा किया. इसके बाद PRC और तिब्बती क्षेत्र के प्रतिनिधियों ने भारत के कालिम्पोंग में बातचीत की. बातचीत की ये प्रक्रिया 7 मार्च, 1950 को शुरू हुई. ये वह वक्त था जब दुनिया कोरिया की घटनाओं में व्यस्त थी, और चीनी कम्युनिस्ट शासन महीनों से तिब्बत को साथ मिलाने के अपने इरादे की घोषणा कर रहा था.
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चीनी सरकार ने मांग की कि तिब्बत के प्रतिनिधि 16 सितंबर 1950 तक बीजिंग पहुंच जाएं लेकिन तिब्बती अधिकारियों ने इसे नजरअंदाज कर दिया. फिर क्या था... 7 अक्टूबर 1950 को PRC सैनिकों ने तिब्बती क्षेत्र में प्रवेश किया और 19 अक्टूबर 1950 को कामदो (चामडो) शहर पर कब्जा कर लिया. तिब्बती अधिकारियों ने भारत से सैन्य मदद भी मांगी. 11 नवंबर 1950 को तिब्बती धर्मगुरू दलाई लामा इस मामले को संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ले गए.
18 नवंबर 1950 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने तिब्बती क्षेत्र पर चीनी हमले की निंदा की. लेकिन सिर्फ निंदा से चीन कहां पीछे हटने वाला था. 19 दिसंबर 1950 को दलाई लामा ने ल्हासा छोड़ दिया और तिब्बत-भारत सीमा पर स्थित यादोंग शहर आ गए. 23 मई 1951 को बीजिंग में चीनी और तिब्बती प्रतिनिधियों ने तिब्बत में शांतिपूर्ण हालात कायम करने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए. गनीमत ये थी कि इससे दलाई लामा को तिब्बत के आंतरिक मामलों को नियंत्रित करने का अधिकार मिल गया था.
तिब्बत पर कब्जा करने से चीन को उसके समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच मिली और भारत के साथ रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण सीमा पर वह सैनिकों की तैनाती भी कर सका. 40,000 चीनी सैनिकों ने जब तिब्बत पर कब्जा किया तब तिब्बत के राजनीतिक सिस्टम और तिब्बती बौद्ध धर्म को संरक्षित रखने के ऐवज में उसे चीन का शासन स्वीकार करना पड़ा. अलग-अलग अनुमानों ने सैनिकों की संख्या 40,000 या 80,000 से ज्यादा बताई गई लेकिन ये सच है कि वे तिब्बत के सैनिकों से कहीं ज्यादा ताकतवर थे.
समझौते के बाद 17 अगस्त 1951 को लाई लामा ल्हासा लौट आए लेकिन जो तिब्बती सालों से आजाद थे उन्हें चीन की सख्ती और शासन रास नहीं आया. मई 1956 में तिब्बतियों ने पूर्वी तिब्बत (सिचुआन प्रांत) में PRC सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया. 21 जुलाई, 1956 से कमदो क्षेत्र (Qamdo region) में नया विद्रोह शुरू हुआ...
किमई गोंगबो (Qimai Gongbo) ने पीआरसी सरकार के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया. इसी बीच नवंबर 1956 से फरवरी 1957 तक दलाई लामा ने भारत की आधिकारिक यात्रा की. अमेरिकी सरकार ने दिसंबर 1956 से तिब्बती विद्रोहियों को सैन्य सहायता (हथियार, गोला-बारूद, ट्रेनिंग) देनी शुरू कर दी. 18 दिसंबर 1956 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव को मंजूरी दी. इसी बीच खंबा आदिवासियों (Khamba tribesmen) ने अगस्त 1958 से पूर्वी तिब्बत में चीनी सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया.
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संघर्ष का दौर (10 मार्च 1959 - 31 मार्च 1959): तिब्बतियों ने 10 मार्च 1959 को ल्हासा में PRC सरकार के खिलाफ विद्रोह शुरू कर दिया. विद्रोह बढ़ता देख दलाई लामा 17 मार्च 1959 को फिर ल्हासा से चले गए. 19 मार्च 1959 को तिब्बती विद्रोहियों ने चीनी सरकार के अधिकारियों पर हमले शुरू कर दिए. इसके जवाब में चीनी सैनिकों ने 20 मार्च 1959 को तिब्बतियों पर हमला बोला. चीनी सैनिकों ने 25 मार्च 1959 को ल्हासा पर कब्जा कर लिया. इस हमले का नतीजा ये हुआ कि लगभग 2000 तिब्बती विद्रोही मारे गए.
चीनी सरकार ने 28 मार्च 1959 को दलाई लामा के नेतृत्व वाली तिब्बती सरकार को भंग कर दिया और पंचेन लामा ने 5 अप्रैल 1959 को तिब्बती सरकार का नियंत्रण ले लिया. 30 मार्च 1959 को भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तिब्बती विद्रोहियों के लिए समर्थन जताया. 31 मार्च 1959 को दलाई लामा और कुछ 80 समर्थक भारत में शरण के लिए पहुंचे. लगभग 87,000 तिब्बती और 2,000 चीनी सरकारी सैनिक मारे गए. संघर्ष के दौरान लगभग 100000 तिब्बती शरणार्थी बनकर भारत, नेपाल और भूटान पहुंचे.
Post-Conflict Phase (April 1, 1959-present): PRC ने तिब्बत में मठों पर ताले जड़ दिए, इस क्षेत्र में चीनी कानून और प्रथा लागू कर दी. तिब्बत के छह हजार धार्मिक मठों, मंदिरों और धार्मिक स्थलों में से 99% से अधिक को लूट लिया गया है या नष्ट कर दिया गया है, जिसका नतीजा ये हुआ कि सैकड़ों हजारों पवित्र बौद्ध ग्रंथ नष्ट हो गए.
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (आईसीजे) ने 26 जुलाई 1959 को भारत के पुरुषोत्तम त्रिकमदास की अध्यक्षता में सात सदस्यीय (बर्मा, सीलोन, घाना, भारत, मलाया, नॉर्वे, सियाम) जांच आयोग बनाया. 9 सितंबर, 1959 को दलाई लामा फिर इस मामले को यूएन महासचिव के पास ले गए.
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 अक्टूबर, 1959 को तिब्बत में मानवाधिकारों के लिए चीन के बर्ताव की निंदा की. 1960 और 1962 के बीच आर्थिक सुधारों की वजह से हुए अकाल में लगभग 3,40,000 तिब्बतियों की मौत हो गई. 9 सितंबर, 1965 को चीनी सरकार ने तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र (TAR) की स्थापना की. 1974 में, PRC सरकार ने तिब्बत पर अपना दमन समाप्त कर दिया और उन तिब्बतियों को माफी दे दी, जिन्हें पहले कैद किया गया था.
इसी बीच अमेरिका की CIA ने 1979 में तिब्बती विद्रोहियों को सैन्य सहायता रोक दी. निर्वासित तिब्बती सरकार ने अगस्त 1979 से जुलाई 1980 तक तिब्बत में तीन फैक्ट फाइंडिंग मिशन भेजे. 24 अप्रैल, 1982 को बीजिंग में पीआरसी सरकार के साथ निर्वासित तिब्बती सरकार ने पहले दौर की वार्ता शुरू की. 19 अक्टूबर, 1984 को वार्ता का दूसरा दौर शुरू हुआ. 1 अक्टूबर, 1986 को ल्हासा में प्रदर्शनों के दौरान छह तिब्बती मारे गए और प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए लगभग 500 लोगों को गिरफ्तार किया गया. तिब्बतियों और सरकारी पुलिस के बीच कई दिनों तक संघर्ष के बाद 8 मार्च 1989 को पीआरसी सरकार ने मार्शल लॉ लागू किया और ल्हासा में 2,000 सैनिकों को तैनात किया. संघर्ष के दौरान लगभग 400 लोग मारे गए.
तिब्बतियों ने 27 सितंबर, 1989 को ल्हासा में PRC सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया. पीआरसी सरकार ने 1 मई 1990 को ल्हासा में मार्शल लॉ हटा लिया. चीनी सरकार की पुलिस ने 7-14 मई 1996 को ल्हासा के पास विरोध प्रदर्शन के दौरान कई तिब्बतियों को गोली मार दी और घायल कर दिया. 20 मई 1996 को एमनेस्टी इंटरनेशनल (एआई) ने तिब्बती प्रदर्शनकारियों के हिंसक दमन के लिए सरकार की निंदा की. यूरोपीय संघ (ईयू) की संसद ने 23 मई 1996 को तिब्बतियों के दमन के लिए चीन की निंदा की. यूरोपीय संघ की संसद ने 13 मार्च 1997 को तिब्बतियों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए चीन की निंदा की.
यूरोपीय संघ की संसद ने 14 मई 1998 को चीनी सरकार और दलाई लामा के बीच शांतिपूर्ण वार्ता की अपील की. दलाई लामा के विशेष दूत ने 9 सितंबर 2002 से 1 जुलाई 2005 तक पीआरसी सरकार के साथ चार दौर की वार्ता की. दलाई लामा के प्रतिनिधियों ने 16 फरवरी 2006 को पीआरसी सरकार के अधिकारियों के साथ पांचवें दौर की बातचीत शुरू की.
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14-16 मार्च, 2008 को तिब्बतियों ने ल्हासा और अन्य चीनी प्रांतों में चीनी सरकार के शासन के खिलाफ फिर दंगे किए. पुलिस की कार्रवाई में 19 लोगों की मौत हुई...
चीन और तिब्बत का संघर्ष बेनतीजा है... तिब्बत की आजादी की मुहिम दुनियाभर में चल रही है लेकिन भविष्य में इसका कोई ठोस नतीजा निकलेगा... कहा नहीं जा सकता है...