Illegal construction in India: अतिक्रमण हटाने को लेकर देश में बवाल मचा है. दिल्ली का शाहीन बाग़ इलाक़ा हो, फ्रैंड्स कॉलोनी, जहांगीरपुरी या तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई, जहां कन्नैयन नाम के एक शख्स ने अवैध झुग्गियों को तोड़े जाने के विरोध में आग लगाकर अपनी जान दे दी. अनधिकृत-निर्माण कर अतिक्रमण करने का आरोप तो दिल्ली बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष आदेश कुमार गुप्ता पर भी हैं. भारत में अवैध अतिक्रमण की परंपरा काफी पुरानी है. ऐसे में काफी सारे सवाल उठते हैं-
सवाल नंबर 1- अतिक्रमण क्या होता है?
सबसे पहले यह समझना बेहद जरूरी है कि अतिक्रमण की मुख्य वजह क्या है. इसे समझने से पहले यह जान लें कि अवैध निर्माण और अतिक्रमण में क्या अंतर है? अवैध निर्माण छोटा और बड़ा दोनों तरह का हो सकता है. पहले छोटे की बात. जैसे कि आपका घर अवैध ना हो लेकिन रैंप आपने नाली के ऊपर बना दिया हो. कई बार आप अपने घर का चबूतरा सड़क के ऊपर बना देते हैं. इसे भी अवैध निर्माण कहा जाता है. शाहीन बाग़, जहांगीरपुरी या न्यू फ्रैड्स कॉलोनी में कुछ इसी तरह के अवैध निर्माण को हटाने की बात की जा रही है.
विरोध इसलिए हो रहा है क्योंकि आरोप है कि यहां सिर्फ मुस्लिम इलाकों को टारगेट कर किया जा रहा है. जबकि दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष आदेश कुमार गुप्ता समेत नार्थ MCD के मेयर राजा इकबाल सिंह ने भी अवैध अतिक्रमण कर रखा है. MCD का पक्ष है कि इसकी वजह से सड़क पर आए दिन जाम की समस्या होती रहती है. बसों और गाड़ियों को आने-जाने में भारी दिक्कत होती है.
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वहीं बड़े अवैध निर्माण वह हैं जिसमें सीढ़ी, रैंप या चबूतरा नहीं पूरी कॉलोनी ही अवैध बस गया हो. यानी कि वह संपत्ति फॉरेस्ट लैंड, डिफेंस या रेलवे जैसे सरकारी संस्थानों की होती है. लेकिन वहां पर धीरे-धीरे पूरी कॉलोनी बस जाती है. हालांकि इस तरह की जमीन का रजिस्ट्रेशन नहीं होता है. यहां पर लोगों को पावर ऑफ अटॉर्नी दी जाती है.
ताज्जुब की बात यह है कि लोग बिना रजिस्टरी भी जमीन लेने को तैयार हो जाते हैं.. क्योंकि वोट के दवाब में इस तरह की कई कॉलोनियों को आगे चलकर लीगल कर दिया गया है. दिल्ली जैसे शहरों में इस तरह के सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे. दोनों अतिक्रमण ही कहलाएगा... क्योंकि दोनों ही मामलों में सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा किया गया है.
आपको जानकर हैरानी होगी कि देश में 32 लाख 77 हजार 591 एकड़ फॉरेस्ट लैंड, 9 हजार 375 एकड़ डिफेंस लैंड और 2012 एकड़ रेलवे लैंड पर अतिक्रमण हो चुका है. सरकार की तरफ से लोकसभा में यह आंकड़ा पेश किया गया है.
सवाल नंबर 2- अतिक्रमण करने वाले कौन लोग हैं?
अब सवाल उठता है कि ये कौन लोग हैं जो अवैध तरीके से रहते हैं या अतिक्रमण करते हैं... यानी कि अतिक्रमण की मुख्य वजह क्या है?
orfonline.org की रिपोर्ट के मुताबिक साल 1901 में भारत में मात्र 1,827 शहर हुआ करता था, जो 2011 तक बढ़कर 7,935 हो गए. ज़ाहिर है शहर बनने से लोगों के लिए अवसर पैदा हुए और रोज़गार की तलाश में लोग शहर की तरफ बढ़े. शहर की तरफ भागने वालों में सभी तरह के लोग थे. गरीब, मध्यवर्गीय और अमीर.. मध्यवर्गीय और अमीर ने तो अपने लिए आशियाना ढूंढ़ लिया, लेकिन गरीबों ने सरकारी जमीनों पर अस्थायी निर्माण कर रोजगार करना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे लोअर मिडिल क्लास लोगों ने भी अपना रुख इस तरफ कर लिया और फिर देखते ही देखते एक बस्ती बस गई. बाद में राजनीतिक पार्टी ने वोट पाने के लिए उस बस्ती को लीगल कर दिया. इस तरह आशियाने के लिए भटक रहे लोगों को अपने लिए शहर के बीचो-बीच घर मिल गया और राजनीतिक पार्टियों को उनका समर्थन... ठीक वैसे ही जैसे विधानसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार ने अक्टूबर 2019 में करीब 1800 अवैध झुग्गियों को वैध कर, करीब 40 लाख लोगों को घर का मालिकाना हक दे दिया.
यह राजनीतिक दलों का ही दवाब होता है कि प्रशासन भी उन पर कार्रवाई नहीं करती है. बदले में वह गरीबों से वसूली करती है जिससे कि उसको रहने दिया जाए. और इस तरह पूरा सिस्टम भ्रष्टचार की भेंट चढ़ जाता है. कई बार दूसरे देशों से आने वाले लोग या घुसपैठिए भी इस तरह से रिफ्यूजी कॉलोनी बनाकर रहने लगते हैं..
सवाल नंबर 3- अतिक्रमण को लेकर कानून क्या कहता है?
अब सवाल उठता है कि अतिक्रमण को लेकर कानून क्या कहता है?
सुप्रीम कोर्ट अतिक्रमण को लेकर हमेशा सख्त रहा है. जुलाई 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अतिक्रमण हटाना न्यायपालिका का काम नहीं है. इसलिए राज्य सरकारें अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए तत्काल प्रभाव से अतिक्रमण हटाएं. इसी तरह दिसंबर 2021 में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अवैध कब्जों की वजह से देश के बड़े शहर स्लम यानि झुग्गी-झोपड़ियों में तब्दील हो गए हैं.
दिल्ली में अवैध कॉलोनियों का मुद्दा काफी पुराना है. पहली बार 1977 में अवैध कॉलोनियों को नियमित करने की नीति लाई गई थी. हालांकि इसे लागू होने में काफी लंबा समय लग गया. 1993 तक दिल्ली की 567 कॉलोनियां नियमित हो गईं.
भारतीय शहरी विकास मंत्रालय ने 2019 में एक सूची जारी करते हुए बताया था कि दिल्ली में 1797 कॉलोनियां अवैध हैं. इनमें सैनिक फार्म, फ्रीडम फाइटर्स एन्क्लेव, वसंत कुंज एन्क्लेव, सैयद अजायब एक्सटेंशन और छतरपुर जैसी 69 पॉश कॉलोनियां भी शामिल हैं. यहां अधिकांश उच्च वर्ग के लोग रहते हैं.
जानकारों का मानना है कि अवैध कॉलोनियों को गिराना ठीक नहीं है. इससे बल्कि आर्थिक नुकसान ही होता है. वहीं दूसरी तरफ यह बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन भी है.
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सवाल नंबर 4- अतिक्रमण हटाने का सही तरीका क्या होना चाहिए?
कानूनी जानकार मानते हैं कि कोई भी कानून किसी सरकारी एजेंसी को प्रभावित पक्षों को पहले सूचना दिए बगैर घरों या ढांचों को ध्वस्त करने की अनुमति नहीं देता है. सुप्रीम कोर्ट ने भी 2017 में अपने इस फैसले को बरकरार रखा था.
दिल्ली में एमसीडी एक्ट की धारा 317 के तहत गलियों से किसी तरह के निर्माण हटाने के लिए नोटिस देना होता है. उसी तरह से धारा 347 के तहत किसी इमारत को गिराने से पहले नोटिस देना होता है. सिर्फ धारा 322 के तहत नोटिस दिए बगैर कार्रवाई की जा सकती है, क्योंकि इसके तहत अस्थायी निर्माण को हटाया जाता है.
दिल्ली में अतिक्रमण हटाने को लेकर पीड़ितों का आरोप है कि उन्हें तोड़फोड़ अभियान से पहले कोई नोटिस नहीं दिया गया. इतना ही नहीं उन्हें वहां से अपना सामान निकालने का मौका भी नहीं दिया गया.
सवाल नंबर 5- अतिक्रमण के लिए जिम्मेदार कौन?
अब आखिर में सवाल उठता है कि सभी बड़े शहरों में इस तरह के अतिक्रमण के लिए जिम्मेदार कौन है? सिर्फ अगर दिल्ली की बात करें तो शायद ही कोई ऐसा इलाका या बस्ती हो, जहां अतिक्रमण ना हुआ हो. अवैध कब्जे की वजह से लोगों का आना जाना तो मुश्किल होता ही है. कई बार अतिक्रमण वाले इलाकों में कोई हादसा हो जाए, तो जान बचाने तक की मुश्किल हो जाती है. क्योंकि वहां एंबुलेंस नहीं जा सकती, फायर ब्रिगेड की गाड़ियां नहीं जा सकती. ऐसे में प्रशासन के लिए रेस्क्यू ऑपरेशन को अंजाम देना मुश्किल हो जाता है.
अनुमान के मुताबिक दिल्ली की शहरी आबादी का 30 फीसदी से अधिक अवैध बस्तियों में रहता है. ये अवैध कॉलोनियां अनियोजित बस्तियां हैं. यानी कि इन बस्तियों को न तो मास्टर प्लान में शामिल किया गया था और ना ही यह आवासीय भूमि के दायरे में आती हैं. मुख्य रूप से यह जमीन ग्रामीण या कृषि भूमि थे. लेकिन भूमि की उच्च कीमतों और पर्याप्त आवास सुविधाओं की कमी का लाभ उठाते हुए, निजी जमींदारों ने पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से अपनी जमीनें, भूखंडों में विभाजित करके बेच दिया. घरों के निर्माण के दौरान नियमों को ताक पर रखा गया, लेकिन सुध किसी ने नहीं ली.
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इन जमीनों पर लोगों ने बिना किसी निर्माण योजना के अपनी इच्छा के मुताबिक घर बनाना शुरू किया. जबकि यहां सड़कों या अन्य बुनियादी सुविधाओं के बारे में कोई प्लान तैयार नहीं किया गया था. तो अब आप खुद ही सोचिए कि इस अवैध निर्माण या अतिक्रमण के लिए जिम्मेदार कौन है? वहां रहने वाले लोग, ऊंची दामों पर जमीन बेचने वाले लोग, वो अफसर जो पैसे लेकर अपने नाक के नीचे यह सब कुछ होने देते रहे या फिर वो लोग जिन्होंने वोट के ख़ातिर सभी ग़लतियों को वैध करार दे दिया. वैसे लोगों का आरोप भी यही है कि वोट के लिए ही लोगों को टारगेट किया जा रहा है.