Indo China War in 1962: 1962 में जीतकर भी चीन ने क्यों खाली कर दिया अरुणाचल? जंग का अनसुना किस्सा

Updated : Feb 16, 2023 15:25
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Mukesh Kumar Tiwari

Indo China War in 1962 : 20 अक्टूबर ही वह तारीख है, जब चीन ने 1962 की जंग की शुरुआत की थी. भारत पर थोपे गए इस युद्ध में देश का बहुत नुकसान हुआ. आज हम जानेंगे कि जब चीन ने 1962 की लड़ाई में अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा कर लिया था, फिर क्यों उसने प्रदेश से अपनी सेनाएं वापस बुला लीं? इन्हीं वजहों को तलाशने से जुड़ा है 20 अक्टूबर का झरोखा...

20 अक्टूबर 1959 को चीनी सैनिकों ने की अंधाधुंध फायरिंग

यह इलाका हमारा है... भारतीय सीमा पुलिस के गश्ती दल के कमांडर कर्म सिंह (Commander Karam Singh 1962) ने जोर से चिल्लाकर कर यह कहा था. पहाड़ी के ऊपर दाएं व बाएं खड़े चीनी सैनिकों ने इसका जवाब दिया धुआंधार गोली से... टामीगन, हैंडग्रैनेड, मोर्टार और ऑटोमैटिक हथियारों की दनदनाहट से हिमालय की 16 हजार फीट ऊंची कुंगका दर्रे की चोटी थरथरा उठी.

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इससे एक दिन पहले, 19 अक्टूबर 1959 का दिन था... शाम के वक्त एक भारतीय गश्ती दल लद्दाख की चांगचेनको वैली (Chanchanko Valley) के हॉटस्प्रिंग पर गया था. शाम तक 2 टुकड़ियां लौट आईं लेकिन एक टुकड़ी का कुछ पता नहीं था. इसमें ख्यालीराम, सोनम दोर्जे और चेतन थे. 

अगली सुबह कमांडर त्यागी और कर्मसिंह 20 सिपाहियों को साथ लेकर उनकी तलाश करने निकले. उन्होंने हॉटस्पिरिंग से 5 मील उत्तर में घोड़ों के पैरों के निशान देखें. त्यागी पीछे खड़े थे, कर्मसिंह आगे बढ़े... तब कर्मसिंह के पास कोई हथियार न था. वह अभी 600 गज ही आगे बढ़े थे कि सामने की पहाड़ी पर चीनी सैनिक दिखाई दिए. सिपाहियों ने चीनियों से कहा कि वे उनका इलाका खाली कर दें.

चीनी सैनिकों ने इशारे से कहा कि वह हथियार डाल दें. कर्मसिंह ने चीनी फौज के सामने अपने हाथ में मिट्टी उठाकर कहा, यह जमीन हमारी है. आप यहां से वापस लौट जाओ. इतना सुनते ही चीनी सेनापति ने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दे दिया... अब कुछ भारतीय सिपाही पत्थर की आड़ में आ गए और कुछ धड़ाम से जमीन पर आ गिरे.

कई घंटे बाद भी जब गोलीबारी नहीं रुकी तब कर्मसिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया. 9 सिपाही शहीद हुए, 10 बंदी बना लिए गए... 1 चीनी सैनिक भी मारा गया. चीनी सैनिक की लाश भारतीयों से उठवाई गई.

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मक्खनलाल नाम के घायल सिपाही को उठाने का काम कर्मसिंह और दो सिपाहियों को दिया गया. मक्खनलाल के पेट में गोली लगी थी. उसे दो मील के फासले पर च्यांग नदी के किनारे दो चीनी सिपाहियों के हवाले कर बाकी सभी को बंदूक की नोक पर धकेलते हुए चीनी कैंप में ले जाया गया. मक्खनलाल का क्या हुआ, आज तक कुछ मालूम न हुआ... इसी घटना के ठीक 3 साल बाद 1962 में ही चीन ने सीधे तौर पर भारत से जंग छेड़ दी थी.

1962  में अरुणाचल के आधे हिस्से पर हुआ था चीन का कब्जा

ये किस्सा तो लद्दाख का था लेकिन इसके 3 साल बाद भारत और चीन में जो लड़ाई हुई उसकी जद में भारत का उत्तर पूर्वी छोर अरुणाचल भी आया. लद्दाख से लगभग 3500 किलोमीटर दूर स्थित अरुणाचल के आधे हिस्से पर चीन ने कब्जा कर लिया था. चीन आज भी लगभग 90 हजार स्क्वेयर किलोमीटर के हिस्से को अपना बताता है. वह इस इलाके को Zangnan के नाम से संबोधित करता है. 

चीन की अरुणाचल पर नजरें तो हैं, लेकिन बड़ा सवाल ये भी है कि जब ड्रैगन ने 1962 की लड़ाई में इसके बहुत बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया था, फिर क्यों युद्ध खत्म करके यहां से सेनाएं वापस बुला लीं? आज झरोखा में हम पड़ताल करेंगे इसी मुद्दे की, जो 1962 की जंग से जुड़ा हुआ है.

बीजिंग हमेशा अरुणाचल प्रदेश (Arunachal Pradesh) पर नजरें गड़ाए रहता है और इसे दक्षिणी तिब्बत भी कहता है लेकिन सवाल ये है कि 1962 के युद्ध के दौरान वह इस क्षेत्र से पीछे क्यों हट गया था? वह भी तब जब उसे युद्ध के बाद कोई बड़ा खतरा नहीं था. रणनीतिक विशेषज्ञ अभी तक इस मामले की वजहें तलाशते रहते हैं.

भारत के प्रधानमंत्रियों के दौरे पर भी आपत्ति जताता है चीन

चीन ने बार-बार भारतीय प्रधानमंत्रियों के अरुणाचल दौरे पर आपत्ति जताई है. इसमें 2009 में पीएम मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) की एक यात्रा भी शामिल है. जब नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने उसी वर्ष अरुणाचल प्रदेश का दौरा किया और उन्हें भी अपनी यात्रा के लिए चीनी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा. चाहे वह निर्वासित तिब्बती नेता दलाई लामा (Dalai Lama) हों या कोई भी भारतीय नेता हो, चीन किसी की भी अरुणाचल यात्रा को पसंद नहीं करता है.

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दिल्ली स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन - Observer Research Foundation (ओआरएफ) में रणनीतिक मामलों के विभाग के प्रमुख रहे हर्ष पंत ने बताया था कि सबसे बड़ी समस्या मैकमोहन लाइन (McMahon Line) की अस्पष्टता थी. उन्होंने बीबीसी से कहा था कि चीन इस मामले को कूटनीतिक स्तर पर उठाकर इसे आगे बढ़ाना चाहता है, लेकिन वह कभी भी इस पर सक्रिय नियंत्रण नहीं रखना चाहता. एक वजह ये भी थी कि अरुणाचल की जनता चीन के खिलाफ खड़ी थी.

1914 में हुआ था मैकमोहन लाइन से जुड़ा समझौता

साल 1914 में, जब भारत में ब्रिटिश शासन था, शिमला में भारत और तिब्बत की तत्कालीन सरकारों के बीच एक समझौता हुआ था. इस समझौते पर ब्रिटिश सरकार के प्रशासक और तत्कालीन तिब्बत सरकार के प्रतिनिधि सर हेनरी मैकमोहन द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे. इसे 'शिमला समझौता' (Simla Convention) कहा जाता है, मैकमोहन ने पूर्वी क्षेत्र में तिब्बत को भारत से अलग करने के लिए लाइन का प्रस्ताव रखा था. बाद में इस लाइन को चीन ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि वह तिब्बत को संधियों पर हस्ताक्षर करने के लिए सक्षम एक संप्रभु सरकार नहीं मानता था.

कई दूसरे एक्सपर्ट्स और सैन्य इतिहासकारों ने 1962 युद्ध के बाद अरुणाचल से चीनियों के पीछे हटने का दूसरा दृष्टिकोण दिखाया है. एक विशेषज्ञ के अनुसार, उस वक्त चीन पर भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव था और भारत को अमेरिका-ब्रिटेन से हथियारों की आपूर्ति का आश्वासन मिल चुका था. 

चीन की अमेरिका से थी तीखी प्रतिद्वंदिता

यह शीत युद्ध का समय था और चीन की अमरीका के साथ तीखी प्रतिद्वंद्विता थी. अमेरिका ने 1979 तक चीन को मान्यता भी नहीं दी थी और भारत-चीन युद्ध के बाद अमेरिका भारत की सहायता के लिए आने की योजना बना रहा था. चीन युद्ध में अमेरिकी हस्तक्षेप से डरता था इसलिए जल्द से जल्द इसे रोकना चाहता था. चीन वियतनामी युद्ध और गृह युद्ध में घिरा हुआ था और इसलिए वह युद्ध को आगे बढ़ाकर इस मोर्चे को जारी नहीं रख सकता था.

और तेजी से सर्दियां लौट रही थीं. सर्दी ज्यादा होने पर पीएलए के इस विस्तार को कमजोर आपूर्ति लाइन के जरिए बनाए रखना नामुमकिन था. और मैकमोहन लाइन के इस पार सैनिकों की तैनाती भी असंभव हो जाती. अगर भारत कहीं से भी चीन को इस क्षेत्र में पटखनी देता तो 1962 युद्ध में उसने जो कामयाबी हासिल की थी, वह बेकार हो जाती.

अरुणाचल की बर्फबारी से चीन की सप्लाई चेन पर असर पड़ता

बर्फबारी की वजह से अगर चीन की सप्लाई चेन पर असर पड़ता तो उसकी आर्मी एक खतरनाक हालत में पहुंच जाती. भारत के पास इस इलाके में कभी भी सेना पहुंचाने की बढ़त  थी.

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हालांकि, किंग्स कॉलेज लंदन में इतिहास पढ़ाने वाले बेरेनिस गयोट-रेचर्ड का इस विषय पर एक अलग दृष्टिकोण है. उन्होंने द हिंदू में लिखा, "इस बात के बहुत से सबूत हैं कि पीपल्स रिपब्लिक चाइना का इस इलाके पर कब्जा एक तरह से लोकल लोगों के साथ संपर्क बनाने की रिहर्सल थी.

यह तर्क देते हुए कि उस समय इलाके के लोगों के दिलों और दिमागों पर न तो चीन और न ही भारत की महत्वपूर्ण पकड़ थी. दोनों ही उन्हें सुशासन और समृद्ध भविष्य का सपना दिखाकर प्रभावित करने की होड़ में थे.

“चीनी सैनिक उपहार और विदेशी सामान साथ लाए थे और लोगों को यह समझाने की हर संभव कोशिश की कि उनके धर्म, रीति-रिवाजों और स्वतंत्रता का सम्मान किया जाएगा.

बेरेनिस ने एक किताब भी लिखी है, जिसका शीर्षक है, Shadow States: India, China and the Himalayas, 1910-1962...

वह यह कहकर अपनी बात खत्म करती हैं कि जंग सिर्फ ज्यादा इलाके (अक्साई चिन में) जीतने या भारत को सबक सिखाने के बारे में नहीं था, जो चीन ने किया भी... बल्कि यह लोगों के दिल और दिमाग को जीतने से भी जुड़ा था... चीन ने जंग तो जीती लेकिन लोगों को नहीं जीत सका...

अरुणाचल के मूल निवासी चीनी घुसपैठ से खुश नहीं थे, उन्हें पता था कि चीन ने किस तरह से तिब्बत में दमन की नीति चलाई थी. ऐसे में चीन का दांव उल्टा पड़ गया.

1962 जंग में चीन ने हासिल किया था अपना मकसद

जंग में चीन ने अपने असल मकसद को हासिल कर लिया था. उसने अक्चाई चिन (Aksai Chin) पर कब्जा कर लिया था और तिब्बत को झिनजियांग प्रांत (Xinjiang Province) से जोड़ दिया था. उसका मुख्य रणनीतिक मकसद तिब्बत और झिनजियांग के बीच सड़क को सुरक्षित करना था. भारत की अग्रिम चौकियों को हटाने में उन्हें कामयाबी मिल चुकी थी. चीन मैकार्टने-मैकडॉनल्ड की उस लाइन पर पहुंच गया जहां तक वह अपनी सीमा होने का दावा करता था. सबसे बढ़कर चीन भारत को बताने में कामयाब रहा कि वह भविष्य में तिब्बत के मुद्दे में हस्तक्षेप नहीं करे. चीन ने तिब्बत को अक्साई चिन पर कब्जे के साथ सुरक्षित कर लिया और आगे जियोपॉलिटिकल वॉर के लिए अरुणाचल का मुद्दा उछालना जारी रखा.

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चलते चलते 20 अक्टूबर को हुई दूसरी घटनाओं पर भी एक नजर डाल लेते हैं

2011 : लीबिया पर 40 साल तक राज करने वाले तानाशाह मोहम्‍मद गद्दाफी (Muammar al-Gaddafi ) को मारा गया

1940: नीदरलैंड में राशन में पनीर भी मिलना शुरू हुआ

1920: पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री Siddhartha Shankar Ray का जन्म हुआ

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