Iran Unrest : ईरान में हिजाब (Protest against hijab) से शुरु हुआ महिलाओं का विरोध अब धार्मिक कट्टरपंथ (Islamic extremism) और पितृसत्तात्मक समाज (paternal society) के विरोध में खुलकर उतर आया है. सिर को ढंकने के एक सख़्त ड्रेस कोड (Dress code) का पालन नहीं करने की वजह से 22 साल की महसा अमीनी की कथित हत्या (mahsa amini death) के बाद महिलाएं हिजाब तो उतार कर फेंक ही रही हैं, इसके साथ ही अब अपने बालों को भी काट रही हैं.
सोशल मीडिया पर आपको ऐसे कई वीडियो मिल जाएंगे, जिसमें महिलाएं अपने बाल काटते हुए नज़र आ रही हैं. हैरत की बात यह है कि महिलाएं अपना वीडियो ख़ुद ही सोशल मीडिया पर वायरल कर रही हैं. पिछले तीन दिनों से जारी महिलाओं का यह विरोध प्रदर्शन अब हिंसक हो गया है. पुलिस के साथ हुई झड़पों में कम से कम पांच लोगों के मारे जाने की ख़बर है.
राजधानी तेहरान तक में प्रदर्शनकारियों और ईरान के सुरक्षा बलों के बीच झड़प की ख़बर है. सवाल उठता है कि आख़िर ऐसा क्या हुआ कि अब तक धार्मिक क़ानून को चुपचाप सहने वाली ये 'कोमल' महिलाएं, पुलिस प्रशासन के सामने चट्टान बनकर खड़ी हो गई हैं. आज इसी मुद्दे पर होगी बात. आपके अपने कार्यक्रम मसला क्या है में?
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पिछले तीन दिनों में ईरानी महिलाओं का जो रूप देखने को मिल रहा है. वह काबिले तारीफ़ है. मैं ईरानी महिलाओं का समर्थन इसलिए नहीं कर रहा हूं क्योंकि वह हिजाब का विरोध कर रही हैं. लेकिन नैतिकता के नाम पर महिलाओं के साथ सख़्ती कहां तक ठीक है? क्या सभी हिदायतें, सिर्फ महिलाओं के लिए ही हैं?
ऐसा भी नहीं है कि ईरान में हमेशा से ही महिलाओं की ऐसी स्थिति थी. 1979 से पहले यहां की महिलाएं बोल्ड स्वीम सूट या बिकनी पहनकर समुद्र में पुरुषों के साथ नहा सकती थीं. लेकिन आज वो अपने पति के साथ भी नहीं नहा सकतीं.
अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA ने 1950 के दौर में मोहम्मद रज़ा पहलवी को सत्ता में बिठाया. पहलवी ने इस्लामिक क़ानून को बदल दिया. इन बदलावों में महिलाओं के वोट करने के अधिकार से लेकर कपड़े पहनने की आजादी तक शामिल थी. उन दिनों महिलाओं के लिए शॉर्ट्स और बिकनी पहनकर घूमना बेहद आम था. लेकिन ईरान को धार्मिक राष्ट्र बनाने के नाम पर महिलाओं से उनकी सभी आज़ादी छीन ली गई. संभव है उस वक़्त की महिलाओं और पुरुषों को विश्वगुरु बनने का यह मॉडल पसंद आया होगा. लेकिन बाद की पीढ़ियों के लिए यह गले की फांस बनती गई. सोचिए आपका एक ग़लत फ़ैसला आने वाली नस्लों के लिए ही चुनौती बन जाती है.
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यह कुछ विजुअल्स देखिए. ये ईरानी महिलाएं हैं और इन्होंने अपने देश को किसी साम्राज्य से मुक्ति नहीं दिलाई. ना ही इन्होंने अंग्रेजों या रूसियों के ख़िलाफ़ कोई आंदोलन छेड़ा था जो एक ज़माने में ईरान के व्यापार में दखल दिया करते थे. आसान भाषा में कहूं तो देश की आज़ादी में इनका कोई योगदान नहीं है. लेकिन यह ख़ुश हैं. क्योंकि इन्होंने तय कर लिया है 1979 में लाई गई इस्लामिक क्रान्ति के नाम पर अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों को नहीं सहने का.
आपके लिए यह हिजाब या बाल काटने तक की बात होगी. लेकिन इन महिलाओं के लिए यह लड़ाई अब अपने अस्तित्व बचाने की है. खुली हवा में सांस लेने की है. सरकारी तानाशाही के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने के लिए ये महिलाएं पुलिसों के साथ ज़ुबानी जंग और हाथापाई करने तक को भी तैयार हैं.
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ईरान में महिलाओं को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए या यूं कहें कि उनका धर्म उन्हें किस बात की इजाज़त देता है ये समझाने के लिए नैतिक पुलिस है. जो उन्हें ईरानी सरकार के धार्मिक क़ानून का पालन करना सिखाती है. ठीक वैसे ही जैसे हमारे देश में श्री राम सेना, बजरंग दल या अन्य धार्मिक संगठन हैं, जो हमें समय-समय पर वैलेंटाइन डे नहीं मनाने, पुरुष मित्रों के साथ पार्टी नहीं करने की नसीहत देते रहते हैं.
नैतिक पुलिस इसलिए नाम रखा है जिससे ईरानी नागरिकों को ऐहसास हो कि वहां की पुलिस कुछ भी अनैतिक नहीं कर रही है. वह तो बल्कि लोगों को नैतिकता बता रही है. ठीक वैसे ही जैसे अब भारत में कर्तव्य पथ हमें अपने कर्तव्यों पर अडिग रहने की सीख देता रहेगा. तो क्या ईरानी महिलाएं अब सरकार द्वारा थोपी गई नैतिक पथ से तंग आ चुकी है?
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सुरक्षाकर्मियों से सीधे-सीधे टकराने वाली महिलाओं की यह तस्वीरें, हिजाब उतारकर आसमान में फेंकने वाली महिलाओं की यह तस्वीरें, अपने बालों को काटने वाली इन महिलाओं की यह तस्वीरें और मेट्रो में नैतिकता का ज्ञान देने वाली नैतिक पुलिस से सीधे-सीधे दो चार करती इन महिलाओं की तस्वीरें तो इसी बात की तस्दीक करती है.
ईरान में 1979 की क्रांति के बाद हालात बदले. वहां के लोगों ने ही शासक पहलवी को सत्ता से बेदखल कर दिया. पहलवी आधुनिक स्कूल-कॉलेज खोलने, महिलाओं को उसके अधिकार देने, उनकी मर्ज़ी के कपड़े पहनने, नौकरी देने, उदारवादी नीतियों को अपनाने और आधुनिक सुधारों को लागू करने के पक्षधर थे. उनके इस रवैये से धार्मिक नेता और मुल्ले चिढ़ते थे. इसलिए उन्हें पश्चिमी देशों का पिट्ठू भी बुलाया जाता था. जैसे अपने देश में प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को लेकर कहा जाता है. पहलवी के बेदखल होने के बाद ईरान के तत्कालीन प्रधानमंत्री चुनाव कराना चाहते थे लेकिन खुमैनी ने ख़ुद ही अंतरिम सरकार बना ली और ईरान को इस्लामिक राज्य घोषित कर शरिया क़ानून लागू कर दिया गया.
तब से देश में सख़्ती तो बढ़ी ही, क़ानून का पालन नहीं करने पर कड़ी सज़ा भी दी जाने लगी. तब इस्लामिक राष्ट्र घोषित होने पर जश्न मनाने वाली पीढ़ी ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनकी आने वाली नस्लों को इन्हीं बेड़ियों से आज़ाद होने के लिए क़ुर्बानी देनी पड़ेगी. तब मर्दों के कंधे से कंधा मिलाकर साथ देने वाली उन महिलाओं ने कभी नहीं सोचा होगा कि उन्हें धर्म के नाम पर सामाजिक परंपराओं की बेड़ियों में बांध दिया जाएगा और शादी के बाद अपना कुंवारापन साबित करने के लिए भी प्रमाण पत्र देना होगा. अन्यथा उन्हें अपने पति के घर से सफ़ेद कफ़न में बाहर निकलना होगा. धार्मिक देश के नाम पर ईरान में कट्टरपंथ और तानाशाही सोच हावी हो गया.
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मंगलवार को अमीनी उसी तानाशाही सोच का शिकार हो गई, जब सिर को ढंकने के एक सख़्त ड्रेस कोड का पालन नहीं करने की वजह से उसे धार्मिक मामलों की पुलिस यानी कि नैतिक पुलिस का सामना करना पड़ गया. चश्मदीदों का कहना है कि, अमीनी को पुलिस वैन में डालकर बुरी तरह पीटा गया था जिसके बाद वो कोमा में चली गई. हालांकि ईरान की पुलिस, इन आरोपों का खंडन कर रही है. उनका कहना है कि अमीनी का 'तुरंत हार्ट फ़ैलियर हुआ था.'
ईरान में बढ़ते प्रदर्शन के बीच मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने ईरान से बिना किसी देरी के इस तरह के सभी कानून को निरस्त करने और महिलाओं के मौलिक अधिकारों के हनन वाले सभी प्रावधानों को हटामे की मांग की है.
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संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय की कार्यवाहक प्रमुख नाडा अल-नशीफ ने महसा अमिनी की दुखद मौत, यातना और दुर्व्यवहार के सभी आरोपों की स्वतंत्र, निष्पक्ष और प्रभावी ढंग से जांच कराने की मांग की है. ईरान की सरकार ने फ़िलहाल इस बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की है. लेकिन सवाल उठता है कि पहले से ही संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त को नज़रअंदाज़ करने वाला ईरान, उनकी मांग को गंभीरता से लेगा?