Mughal Princess Jahanara Begum Biography : जहांआरा, मुगल बादशाह शाहजहां (Mughal Ruler Shahjahan) की सबसे बड़ी बेटी थी. वह अपने पिता के उत्तराधिकारी और छठे मुगल सम्राट औरंगज़ेब की बड़ी बहन भी थी. जहांआरा ने ही दिल्ली के ऐतिहासिक चांदनी चौक की रूपरेखा (Chandni Chowk Design) बनाई थी. आज हम इस लेख में जहांआरा की जिंदगी के बारे में करीब से जानेंगे...
साल 1681 से कुछ पहले का वक्त... औरंगजेब (Aurangzeb) की ताजपोशी को 20 बरस गुजर चुके थे... मुगल सल्तनत में उसके दुश्मनों का खात्मा हुए अरसा हो चुका था... अब उसे तख्त छिनने का डर नहीं था... उसने हर बगावत को रौंद डाला था... लेकिन कोई एक था जिसने औरंगजेब को तख्त पर बैठते देखा था, भाईयों के कत्लेआम, पिता शाहजहां की मौत देखी थी और अब हिंदुस्तान की वह राजकुमारी खुद अपनी बेबसी पर खामोश थी... ये थी मुगलकाल की शहजादी जहांआरा.
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जहांआरा तब एक पुराने पलंग के बिछौने पर पड़ी थी और सांसें धीमी चल रही थी. औरंगजेब उससे मिलने पहुंचा तो देखा कि ये वही जहांआरा है, जिसके कदमों में कभी भारत का हर ऐशो आराम पनाह लेता था... जिसके बीमार पड़ने पर शाहजहां भी परेशान हो जाता था और सैंकड़ों हकीम बुला लिए जाते थे. लेकिन आज वह बेजान सी पड़ी थी. ये हालात देखकर पत्थर भी पिघल जाए... और उस रोज ये देखकर औरंगजेब की आंखें भी आंसुओं से भर आईं... वह घुटनों के बल बैठ गया. पास मुंह ले जाकर बोला, बहन, मेरे लिए कोई हुक्म?
जहांआरा ने अपनी आंखे खोली और एक पुरजा उसके हाथ में दिया... औरंगजेब ने इसे झुककर लिया और पूछा- बहन, क्या हमें माफ करोगी?
जहांआरा ने खुली आंखों को आसमां की ओर उठा लिया. औरंगजेब उठा और आंसुओं को पोंछते हुए पुरजे को पढ़ा, उसमें लिखा था-
बगैर सब्जः न पोश्द कसे मजार मरा,
कि कब्रपोश गरीबां हमीं गयाह बस-अस्त।
(कोई इंसान हमारी कब्र को हरी घास के अलावा किसी और पोशिश ( नकाब ) से न ढके,)
(क्योंकि यही घास इस (आम-सी) फखीरा के लिए सबसे मुफीद चुन्नी होगी जिससे कब्र से ढका जाए)
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आज की तारीख का संबंध है मुगल सल्तनत की उस मल्लिका जहांआरा से जो अपने दौर की सबसे ताकतवर महिला थी... 16 सितंबर 1681 को ही जहांआरा ने आखिरी सांस ली थी
भारत की राजधानी दिल्ली की एक आम गली, जो इत्र और चादरों के लिए जानी जाती है. इन्हीं गलियों में हजरत निजामुद्दीन औलिया की 800 साल पुरानी दरगाह है. हजरत सूफीवाद के सबसे नामचीन फकीरों में से एक हैं. शाम से सुबह तक हजारों लोग इस दरगाह पर आते हैं. हालांकि, कम ही लोग जानते हैं कि दिल्ली के सबसे मशहूर सूफी दरगाह पर मध्यकालीन भारत की सबसे ताकतवर महिला रही जहांआरा बेगम का भी मकबरा है.
एक लेखिका, कवियत्री, चित्रकार और दिल्ली के ऐतिहासिक बाजार चांदनी चौक की वास्तुकार मुगल राजकुमारी जहांआरा जैसा कोई दूसरा नहीं हुआ.
सम्राट शाहजहां और उनकी अजीज़ बेगम मुमताज महल की सबसे बड़ी संतान, जहांआरा का जन्म 1614 में अजमेर में हुआ था. दुनिया की सबसे रईस और सबसे शानदार सल्तनतों में से एक में पली-बढ़ी राजकुमारी ने अपना बचपन भव्य महलों में शाही परिवार के झगड़ों, जंग की साज़िशों, शाही वसीयत की लड़ाई और हरम की हलचल के बीच बिताया. और इसी वजह से कम उम्र में ही वह राज काज की कला में महारत हासिल कर चुकी थी.
जहांआरा को उनके प्यारे माता-पिता ने बेगम साहिब (राजकुमारियों की राजकुमारी) नियुक्त किया था. वह अक्सर अपनी शाम पिता शाहजहां के साथ शतरंज खेलने, शाही घराने के कामकाज को समझने और अपने दूसरे महलों को बनाने की योजना बनाने में अब्बू की मदद करते बिताती.
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फ्रैंच ट्रैवलर और फिजिशियन फ्रांसिस बर्नियर ने अपने यात्रा वृत्तांत 'द मोगुल एम्पायर' में लिखा है- “शाहजहां का अपने पसंदीदा बच्चे पर बहुत भरोसा था; जहांआरा शाहजहां की सुरक्षा पर पैनी नज़र रखती थी... ऐसी कि शाही मेज पर ऐसे किसी भी व्यंजन को रखने की इजाजत नहीं थी जो उसकी देखरेख में तैयार न किया गया हो”
जहांआरा शाहजहां के सबसे बड़े बेटे और अपने भाई दारा शिकोह के भी काफी नजदीक थी. कविताओं, चित्रकारी, शास्त्रीय साहित्य और सूफीवाद को लेकर दोनों की दिलचस्पी एक जैसी थी.
जहांआरा ने कई किताबें भी लिखीं. अजमेर के सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की जीवनी भी इसमें शामिल है.
लेकिन राजकुमारी की जिंदगी में त्रासदी तब आई जब 1631 में मां मुमताज़ ने दुनिया छोड़ दी. 17 साल की छोटी उम्र में, उन्हें शाही मुहर का चार्ज सौंपा गया और मल्लिका-ए-हिंदुस्तान 'पादशाह बेगम' यानी भारतीय सल्तनत की पहली महिला के पद से नवाजा गया. मुमताज की मौत के बाद टूट चुके बादशाह शाहजहां शाही जिम्मेदारियों से दूर होते जा रहे थे. वह जहांआरा ही थी जिसने टूटे बादशाह को इस दर्द भरे दौर से बाहर निकाला.
आने वाले सालों में, वह अपने पिता की सबसे भरोसेमंद सलाहकार बन गईं. जहांआरा शिक्षित थीं और कूटनीतिक व्यवहार में कुशल थीं, उनके कहे शब्द इतने ताकतवर हो चुके थे कि वह लोगों की तकदीर बदल सकती थीं. विदेशी राजदूत उनसे संबंध बनाने लगे थे.
1654 में, शाहजहां ने श्रीनगर के राजा पृथ्वीचंद पर हमला किया. युद्ध में हारते राजा ने जहांआरा से रहम की भीख मांगी. राजकुमारी ने उससे कहा कि वह अपने बेटे मेदिनी सिंह को भेजे. इसे वफादारी के प्रतीक के तौर पर देखा जाएगा. ऐसा करके पृथ्वीचंद को माफी दे दी गई.
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अगले ही साल, जब औरंगजेब दक्कन का वायसराय था, वह अब्दुल कुतुब शाह के गोलकुंडा को कब्जे में लेने पर आमादा था. गोलकुंडा के शासक ने राजकुमारी को एक शाही अनुरोध लिखा, जिसके बाद राजकुमारी ने उसकी ओर से हस्तक्षेप किया. कुतुब शाह को शाहजहां (औरंगज़ेब की इच्छा के खिलाफ) द्वारा क्षमा कर दिया गया और टैक्स के भुगतान पर उसने अपनी हिफाजत की गारंटी पुख्ता कर ली.
दिलचस्प बात यह है कि जहांआरा भी उन कुछ मुगल महिलाओं में से एक थी, जिनके पास खुद का एक जहाज था. सूरत की मिल्कियत मुगल शहजादी जहांआरा के पास थी. जहांआरा की जेबखर्ची का एक बड़ा हिस्सा तापी किनारे बने सूरत के किले से आता था. शहजादी ज्यादा वक्त के लिए कभी सूरत नहीं गई लेकिन जब जाती तो बेगमवाड़ी में रहती थीं.
मुगल शहजादी के पास जो अधिकार हैं, उस वक्त अंग्रेज महिलाओं के पास भी नहीं थे. महज 14 साल की उम्र में शाहजहां ने छह लाख रुपए सालाना वजीफ़ा उनके लिए तय किया था. बादशाह ने कई दूसरे शहरों की जागीर के साथ ही सूरत शहर की जागीर और सूरत का किला भी जहांआरा को सौंप दिया था. साहिबी जहाज सूरत के दरिया से रफ्तार भरता और कारखानों में बने सामान को दुनिया भर में पहुंचाता. अपनी समझ के बूते ही जहांआरा ने अपनी सालाना कमाई को 30 लाख रुपये तक पहुंचा दिया था.
अपनी पुस्तक स्टोरिया डो मोगोर में इटैलियन नागरिक निकोलाओ मनूची लिखते हैं, "जहांआरा सभी से प्यार करती थी और आलीशान जिंदगी जीती थी." पुस्तक को शाहजहां के दरबार के सबसे विस्तृत विवरणों में से एक माना जाता है.
लेकिन जहांआरा का रसूक उसके भाइयों दारा शिकोह और औरंगजेब पर कोई असर डालने में नाकाम रहा. उसने दोनों के बीच मध्यस्थता करने की कई कोशिश की. इरा मुखोटी ने अपनी पुस्तक डॉटर्स ऑफ द सन में लिखा है कि उसने "दारा के लिए औरंगजेब के अंदर पल रही नफरत को कम करके आंका था.
औरंगजेब ने आखिर में दारा शिकोह को मार डाला और बीमार शाहजहां को आगरा किले में कैद कर दिया. अपने पिता के प्रति वफादार जहांआरा ने अपनी शान ओ शौकत भरी जिंदगी को किनारे रख दिया और पिता की देखरेख के लिए उनके साथ ही रहने का फैसला किया.
जहांआरा ने 8 साल तक शाहजहां की देखभाल की. 1666 में उनके अंतिम सांस लेने तक... मुगल दरबार में जहांआरा के कद को लेकर काफी कुछ कहा जाता है.. एक सच ये भी है कि शाहजहां की मृत्यु के बाद, औरंगजेब ने उनकी पादशाह बेगम की उपाधि को कायम रखा और उसे साहिबात अल-ज़मानी की नई उपाधि के साथ पेंशन की सुविधा भी दी. जहांआरा अपने वक्त से आगे की महिला थी.
जहांआरा को भी आगरा किले की सीमा के बाहर अपनी हवेली में रहने की अनुमति थी.
जहाँआरा ने खुद को साहित्य और काव्य जगत की सबसे प्रभावशाली महिला संरक्षक के रूप में शहर में स्थापित किया. वह दुर्लभ किताबों का संग्रह करती थीं, और उनकी लाइब्रेरी अद्वितीय थी. वह दान के लिए धन देती थीं, खास तौर से सूफी दरगाहों को... इरा मुखोटी ने अपनी किताब में लिखा है कि वह नाबालिग राजाओं के साथ सभ्य तरीके से कूटनीति करती थीं, वे सभी शिकायत और तोहफे लेकर उनके पास आते थे.
1681 में 67 वर्ष की उम्र में जहांआरा का निधन हो गया.
जहांआरा ने कई ऐतिहासिक स्मारक भी बनवाए. कई मस्जिदें, सराय और बगीचे जहांआरा की ही देन है. लेकिन उन्हें पुरानी दिल्ली के मशहूर बाजार, चांदनी चौक के वास्तुकार के रूप में सबसे ज्यादा याद किया जाता है.
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चौक के बीच में एक बड़ा तालाब था. इस बाज़ार की बनावट चौकोर रखी गई और बीच का हिस्सा खाली छोड़ा गया क्योंकि उस जगह पर यमुना नदी का पानी आता था. बनावट से अद्भुत और विचित्र होने के चलते देश भर के व्यापारी का ध्यान इस बाज़ार ने खींचा. कहा जाता है कि, जब बाज़ार बनकर तैयार हुआ और इसे पहली बार देखा गया तो वो समय रात का था और यमुना नदी पर चांद की रौशनी पड़ रही थी, बस तभी से इसका नाम चांदनी चौक (History Of Chandni Chowk) रख दिया गया.
आज चांदनी चौक की कई प्राचीन इमारतों को तोड़ दिया गया है, इसे नए रूप में बना दिया गया है लेकिन शायद इसकी नई खूबसूरती इस पुरानी भव्यता के आगे अभी भी कम ही है, जिसे जहांआरा ने देखा होगा.
दिलचस्प बात यह है कि निजामुद्दीन दरगाह में जहांआरा का मकबरा उन्हीं की पसंद पर बनाया गया था. अपने माता-पिता के लिए बनाए गए विशाल मकबरे से उलट, मकबरा एक साधारण संगमरमर से बना है और इसपर फ़ारसी में उनके खुद के दोहे खुदे हैं.
अपने माता-पिता के लिए बनाए गए विशाल मकबरे से उलट जहांआरा का मकबरा साधारण संगमरमर पर टिका हुआ है, जिसपर फारसी में जहांआरा का दोहा भी खुदा है...
बगैर सब्जः न पोश्द कसे मजार मरा, (कोई इंसान हमारी कब्र को हरी घास के अलावा किसी और पोशिश ( नकाब ) से न ढके,)
कि कब्रपोश गरीबां हमीं गयाह बस-अस्त। (क्योंकि यही घास इस (आम-सी) फखीरा के लिए सबसे मुफीद चुन्नी होगी जिससे कब्र ढका जाए)
चलते चलते 16 सितंबर की दूसरी घटनाओं पर एक नजर डाल लेते हैं
1908 - General Motors Corporation की स्थापना हुई
2017 - भारतीय वायु सेना के वरिष्ठतम और 5 स्टार रैंक तक पहुंचने वाले एकमात्र मार्शल अर्जन सिंह का निधन
1978 - ईरान में आए भूकंप में 20 हजार से भी ज्यादा लोग मारे गए
1978 - ज़िया-उल-हक आधिकारिक रूप से पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने