Kashmir conflict : 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान की ओर से लगभग 200-300 ट्रक कश्मीर में दाखिल हुए थे. ट्रक में पाकिस्तान के फ्रंटियर प्रोविंस के कबायली भरे थे. इनमें अफरीदी, वज़ीर, मेहसूद क़बीले के मुजाहिदीन थे. वे जहां जहां होकर गुजरे अल्पसंख्यक हिंदू आबादी पर जुर्म की दर्दनाक कहानी लिखते और भारत से क्षेत्र को काटने की कोशिश करते...
हरि सिंह (Maharaja Hari Singh) ने खतरा बढ़ता देख जम्मू-कश्मीर का भारत संग विलय (Accession of Jammu and Kashmir in India) कर लिया... विलय के बाद भी रियासत में लड़ाई जारी थी... भारतीय सेना ऐसे इलाकों को फिर से पाने के लिए लड़ रही थी जिनपर पाकिस्तानी कबायलियों ने कब्जा कर लिया था...
तब दो महीने बाद 23 दिसंबर 1947 को नेहरू (Jawaharlal Nehru) ने पटेल (Sardar Vallabhbhai Patel) को एक चिट्ठी लिखी थी जो सीधे सीधे पटेल को कश्मीर मामले में दखल न देने का आदेश था... नेहरू ने ये बात पटेल की चिट्ठी के जवाब में लिखी थी जिसे उन्होंने एक दिन पहले ही लिखा था... अगर तब नेहरू पटेल की बात मान लेते तो शायद कश्मीर की समस्या भयानक रूप न लेती...
आज हम जानेंगे नेहरू-पटेल की उसी बातचीत को जो हुई तो चिट्ठियों के जरिए थी लेकिन कश्मीर के लिए निर्णायक साबित हुईं...
कश्मीर पर अपनी बेबसी को सरदार पटेल कभी छुपा नहीं पाए. मशहूर राजनीतिज्ञ एचवी कामत की मानें तो अगर नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर (N. Gopalaswami Ayyangar) कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न किया गया होता... तब शायद हैदराबाद की तरह इस मुद्दे को भी सुलझाया जा सकता था.
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इसको लेकर पटेल ने कई कोशिशें भी कीं लेकिन उनकी अपनी सीमाएं थीं और यही सीमाएं कश्मीर समस्या को विकट बना गईं. हैदराबाद नवाब का घमंड चूर कर इस मुस्लिम रियासत को आसानी से भारत में मिलाने वाले पटेल कश्मीर को भी भारत में मिलाने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे लेकिन कश्मीर पर बने अंतरराष्ट्रीय दबाव और तब के PM जवाहर लाल नेहरू की निजी दिलचस्पी की वजह से पटेल ने इस मुद्दे से कुछ वक्त के लिए किनारा कर लिया था...
रियासतों का मामला रियासती मंत्रालय के तहत आता था, जिसकी कमान सरदार पटेल के हाथ थी. पटेल ने 500 से ज्यादा रियासतों का मामला बेहद कुशलता से निपटाया था. इसी को देखते हुए जम्मू-कश्मीर मामले को भी पटेल पर छोड़ना चाहिए था. हालांकि, नेहरू ने प्रधानमंत्री के तौर पर खुद जम्मू-कश्मीर संभालने का फैसला किया था.
बिना सरदार की सहमति के और यहां तक कि उन्हें सूचित करने का शिष्टाचार निभाए बिना. नेहरू ने एन गोपालस्वामी आयंगर, जम्मू-कश्मीर के पूर्व दीवान और संविधान विशेषज्ञ को बिना पोर्टफोलियों के कैबिनेट में शामिल कर लिया था. ताकि वे कश्मीर को संभालने में नेहरू की मदद कर सकें. आज़ादी के पहले दक्षिण भारत से ताल्लुक रखने वाले एन गोपालस्वामी आयंगर जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री थे. ये आयंगर ही थे जिन्होंने अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने का काम किया था.
वह गोपालस्वामी ही थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में भारत के मामले को बुरी तरह बिगाड़ दिया था. आयंगर ने कश्मीर विवाद पर संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया. उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को बताया कि भारतीय सेना राज्य के लोगों की सुरक्षा के लिए वहां गई है और एक बार घाटी में शांति स्थापित हो जाए तो वहां जनमत संग्रह कराया जाएगा.
सरदार को गोपालस्वामी की भूमिका के बारे में अप्रत्यक्ष रूप से तब पता चला, जब उन्होंने जम्मू-कश्मीर से संबंधित एक नोट जारी किया, वह भी सरदार की सलाह लिए बिना. सरदार पटेल ने 22 दिसंबर 1947 को गोपालस्वामी को लिखा- इस प्रश्न को रियासती मंत्रालय द्वारा संदर्भित और निपटाया जाना चाहिए था. मैं सुझाव देना चाहूंगा कि संबंधित कागजात को अब रियासती मंत्रालय को हस्तांतरित किया जा सकता है और भविष्य में कश्मीर प्रशासन को सीधे मंत्रालय से संपर्क करने के लिए कहा जा सकता है.
गोपालस्वामी ने सरदार को सच्चाई से अवगत करा दिया कि वे जो कुछ कर रहे हैं, पीएम नेहरू के इशारे पर कर रहे हैं. साथ ही कहा, कि अगर उप प्रधानमंत्री चाहते हैं तो वे खुद को जम्मू-कश्मीर के मामले से अलग करने को तैयार हैं.
हालात को भांपते हुए सरदार पटेल ने अगले दिन 23 दिसंबर 1947 को गोपालस्वामी को जवाबी पत्र लिखा- मैं इसके बजाय अपने पत्र को वापस लेना चाहूंगा और चाहूंगा कि आप जैसा श्रेष्ठ समझें, उस तरह से इस मुद्दे से निपटें, न कि इसे अपने लिए परेशानी बनने दें.
इस बीच जब नेहरू को 22 दिसंबर 1947 के दिन लिखे गए इस पत्र की जानकारी मिली तो उन्होंने अगले दिन पटेल को काफी हद तक कठोर पत्र लिख डाला...
"गोपालस्वामी आयंगर को खासतौर से कश्मीर मामले में मदद करने के लिए कहा गया है. इस वजह और कश्मीर की उनकी जानकारी व अनुभव को देखते हुए उन्हें पूरी छूट दी गई है. मैं यह नहीं समझ सकता कि इसमें रियासती मंत्रालय कहां से बीच में आ गया, सिवाय इसके कि उसे उठाए जाने वाले कदमों से अवगत रखा जाए! यह सब मेरी पहल पर किया गया है और मैं उन मामलों में अपने कर्तव्यों से पीछे हटने को तैयार नहीं हूं, जिनके लिए मैं खुद को जिम्मेदार मानता हूं. क्या मैं ऐसा कह सकता हूं कि गोपालस्वामी के प्रति आपका रवैया एक सहकर्मी के रूप में शायद ही शिष्टाचार के अनुसार था?"
ये पत्र जैसे ही पटेल के पास पहुंचा उन्होंने भी 23 दिसंबर 1947 को नेहरू को पत्र लिख डाला-
आपका आज का पत्र मुझे अभी शाम 7 बजे प्राप्त हुआ है और मैं आपको यह बताने के लिए तुरंत ही इसका जवाब लिख रहा हूं. मुझे इससे काफी दुख पहुंचा हैं. आपका यह पत्र मिलने से पहले ही मैं गोपालस्वामी को एक और पत्र लिख चुका हूं, जिसका कॉपी अटैच है. आपका पत्र मुझे इस बात को स्पष्ट करता है कि मुझे आपकी सरकार के सदस्य के रूप में काम करना जारी नहीं रखना चाहिए और इसलिए मैं पद से इस्तीफा दे रहा हूं. मैं अपने इस कार्यकाल, जो काफी तनावपूर्ण रहा है, उसके दौरान प्रदर्शित किए गए शिष्टाचार और अनुकंपा के लिए आपका आभारी हूं...
जाहिर है, माउंटबेटन की सलाह पर ये पत्र गांधी जी को नहीं भेजा गया, जिनकी राय थी कि पटेल के बिना सरकार को नहीं चलाया जा सकता है.
सरदार पटेल पर कई किताबें लिखने वाले पीएन चोपड़ा ने अपनी किताब "कश्मीर एवं हैदराबादः सरदार पटेल" में लिखा है- "सरदार पटेल मानते थे कि कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र नहीं ले जाना चाहिए था. कई देशों से सीमाएं जुड़ने की वजह से कश्मीर का सामरिक महत्व था. पटेल इसे बखूबी समझते थे और इसीलिए वह हैदराबाद की तरह कश्मीर को भी भारत में बिना शर्त मिलाना चाहते थे.
पटेल ने इसके लिए रियासत के महाराज हरि सिंह को राजी भी कर लिया था लेकिन शेख अब्दुल्ला से महाराजा के मतभेद और नेहरू से शेख की करीबी ने सारा मामला बनते बनते बिगाड़ दिया.. तथ्य ये भी है कि कश्मीर का जो हिस्सा अभी भारत के नियंत्रण में है, उसके पीछे भी पटेल का ही दिमाग है. आज कश्मीर का जो हिस्सा भारत के पास है, उसके पीछे भी पटेल का ही दिमाग माना जाता है.
अगर कश्मीर मसले पर नेहरू वक्त रहते पटेल का मशविरा मान लेते, तो शायद कश्मीर पर कभी ये नौबत नहीं आती. पत्र लिखने के बाद सरदार ने गांधी जी से मुलाकात की. गांधी जी की नेहरु से भी अलग से मुलाकात हुई, हालांकि किसी का इस्तीफा नहीं हुआ... लेकिन कश्मीर मसले पर सरदार पटेल की भूमिका का अंत हो चुका था...
31 दिसंबर 1947 को भारत की ओर से कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया. माउंटबेटन का रवैया पाकिस्तान के प्रति नरम था और उन्होंने ही नेहरू से जंग रोकने की अपील की थी. माउंटबेटन और नेहरू की बातचीत की जानकारी ब्रिटिश सरकार तक पहुंची... ब्रिटिश सरकार ने सलाह दी कि भारत की हार बॉर्डर की लड़ाई में तब्दील हो जाएगी. ब्रिटिश पीएम एटली ने नेहरू को चेताया कि बॉर्डर वार की शुरुआत यूएन में भारत को कमजोर कर सकती है.
भारत कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले गया था और वहां पर जनमत संग्रह की मांग उठी. संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में भारत के हिस्से में जितना भाग था वो भारत के पास ही रहा और पाकिस्तान का हिस्सा पाकिस्तान के पास. इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ. सबकी स्थिति जस की तस रही...
जुलाई 1949 में महाराजा हरि सिंह ने अपने बेटे कर्ण सिंह को गद्दी सौंप दी. इसके बाद शेख़ अब्दुल्ला और अपने साथियों के साथ संविधान सभा में शामिल हो गए. इस समय भारत का संविधान बन रहा था.
साल 1950 में भारत का संविधान लागू हुआ और अनुच्छेद 370 के आधार पर जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा मिला.
चलते चलते 23 अक्टूबर को हुई दूसरी घटनाओं पर भी एक नजर डाल लेते हैं
1902 : भारत के 5वें प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का यूपी के हापुड़ में जन्म
1914 : प्रथम विश्व युद्ध में आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड की सेना मिस्र की राजधानी काहिरा पहुंचीं
1921 : विश्व-भारती विश्वविद्यालय का उद्घाटन हुआ
1922 : BBC रेडियो से दैनिक समाचार प्रसारण शुरू किया गया
1979 : सोवियत संघ की सेना ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया.
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