Mulayam Singh Yadav Cremation: लोहिया-चरण सिंह के शागिर्द मुलायम सिंह यादव का ऐसा रहा सियासी सफर

Updated : Oct 29, 2022 17:25
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Deepak Singh Svaroci

Mulayam Singh Yadav Political journey : पिछड़ों के 'सूरमा' कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव आज पंचतत्व में विलीन हो गए. धरतीपुत्र कहे जाने वाले मुलायम सिंह का अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ मंगलवार शाम को सैफई में संपन्न हुआ. उसी जगह पर जहां एक ज़माने में वो पहलवानी किया करते थे. यानी जिस जगह से मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी से अपने जीवन के संघर्ष की शुरुआत की थी, आख़िर में वहीं की मिट्टी में समा गए.

पहले तो एक सक्रिय पहलवान के लिए शिक्षक बनना ही आसान नहीं होता. लेकिन नेताजी की यात्रा, पहलवानी और शिक्षक से कहीं आगे की थी. वह जब राजनीति में आए तो उनके सामने राजनीतिक गुर सीखने की चुनौती थी. ऐसे में मुलायम सिंह यादव, राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह के शागिर्द बन गए.

लोहिया-चरण सिंह की राजनीति को बढ़ाया

लोहिया से समाजवादी राजनीति और चौधरी चरण सिंह से किसान राजनीति की सीख लेकर उन्होंने ना केवल अपनी पहचान बनाई, बल्कि समस्त OBC समाज के मसीहा बन गए.

ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि अगर मुलायम ना होते तो आज यूपी की सियासत में पिछड़े वर्ग के नेताओं को वो सम्मान नहीं मिल रहा होता, जो आज वह पा रहे हैं.

विश्वसनीयता पर उठे सवाल

हालांकि एक सच यह भी है कि राजनीतिक रूप से उनकी विश्वसनीयता को लेकर भी सवाल उठते रहे... क्योंकि वह कब किधर चले जाएं, कोई नहीं जानता था. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि मुलायम सिंह हमेशा अपने दिल की सुनते थे, इसलिए वह कब क्या कर दें, कोई नहीं जानता था.

पीएम बनते-बनते रह गए मुलायम

शायद यही वजह थी कि मुलायम एक बार पीएम बनते-बनते रह गए. जबकि नेतृत्व के लिए हुए आंतरिक मतदान में मुलायम सिंह यादव ने जीके मूपनार को 120-20 के अंतर से हरा दिया था. लेकिन अंत में उनके दो प्रतिद्वंद्वी लालू यादव और शरद यादव ने ही उनकी राह में रोड़े अटका दिए.

इसमें उन्हें साथ मिला चंद्रबाबू नायडू का और गुजराल जो कभी रेस में नहीं थे, अचानक प्रधानमंत्री बन गए. इतना ही नहीं, बतौर रक्षामंत्री उन्होंने कुछ ऐसे काम किए जो सदियों तक याद किए जाएंगे. आज इन्हीं तमाम मुद्दों पर होगी बात, आपके अपने कार्यक्रम मसला क्या है? में.

गरीब तबकों को दिया राजनीतिक मंच

अगर मैं ये कहूं कि मुलायम सिंह यादव ने उत्तरप्रदेश की राजनीति में राम मनोहर लोहिया और चरण सिंह की राजनीतिक विरासत संभाली तो गलत नहीं होगा. ठीक वैसे ही जैसे बिहार में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान ने किया.

उत्तर प्रदेश में जब भी गरीब तबकों के लोगों को राजनीतिक मंच देने की बात होगी तो उसका श्रेय नेताजी को भी जाएगा. हालांकि इसकी शुरुआत राम मनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह और कांशीराम ने की थी. लेकिन इसे अंजाम तक पहुंचाने में नेताजी की प्रमुख भूमिका रही है.

मुलायम सिंह यादव, बहुजन समाज, जाट और यादवों से आगे बढ़कर पूरे OBC समाज को समाजवादी पार्टी के साथ ले आए. इसके साथ ही मुस्लिम वोटों को भी जोड़ा. समाजवादी पार्टी के मजबूत होने के बाद ही उत्तर प्रदेश में OBC, खासकर यादव जाति के नेता उभरकर सामने आए.

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पहली बार सीएम बने तो बीजेपी से हुआ सामना

मुलायम सिंह पहली बार जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उनके लिए तेज़ी से उभर रही भारतीय जनता पार्टी का सामना करना सबसे बड़ी चुनौती थी. तब मुलायम सिंह ने एक वाक्य कहा था- "बाबरी मस्जिद पर एक परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा" नेताजी के इस वाक्य ने उन्हें मुसलमानों के बहुत क़रीब ला दिया.

इसके बाद 2 नवंबर, 1990 को जब कारसेवक, बाबरी मस्जिद की तरफ़ बढ़ रहे थे तो उन पर पहले लाठीचार्ज किया गया और बाद में गोलियां चली. जिसमें एक दर्जन से अधिक कार सेवक मारे गए.

इस घटना के बाद से बीजेपी समर्थकों ने मुलायम सिंह यादव को 'मौलाना मुलायम' नाम दे दिया. लेकिन इस घटना के बाद बीजेपी का ग्राफ़ पूरे देश में बढ़ने लगा. जिसके बाद मुलायम सिंह ने 4 अक्तूबर, 1992 को समाजवादी पार्टी की स्थापना की. 

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पहलवानी से सीखा राजनीतिक दांव-पेच

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मुलायम के राजनीतिक अखाड़े में सफलता की वजह बहुद हद तक पहलवानी भी थी. क्योंकि कुश्ती में दांव-पेंच का बड़ा खेल होता है. मुलायम सिंह किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि से नहीं थे.

प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक नेता नाथू सिंह ने पहली बार मुलायम सिंह को 1967 के चुनाव में जसवंतनगर विधानसभा सीट से टिकट दिलवाया था. महज़ 28 साल की उम्र में वे विधायक बन गए.

मुलायम प्रदेश के इतिहास में सबसे कम उम्र के विधायक थे. 38 साल की उम्र में वह सहकारिता मंत्री बने. तब उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी. साल था 1977. इसके बाद जो कुछ हुआ वह इतिहास ही है. 

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मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफ़र (Mulayam Singh Yadav political journey)

1. मुलायम सिंह 8 बार विधायक,  3 बार सीएम, 7 बार सांसद बने
2. 1989 में वह पहली बार यूपी के मुख्यमंत्री बने
3. 1993 में वे दूसरी बार मुख्यमंत्री बने
4. 1996 में पहली बार मैनपुरी से लोकसभा चुनाव लड़ा
5. 1996 से 1998 तक यूनाइटेड फ़्रंट की सरकार में रक्षा मंत्री रहे
6. 2003 में एक बार फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने
7. 2007 तक मुलायम सिंह यादव सीएम बने रहे

मुलायम सिंह यादव तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने लेकिन कभी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. इसके साथ ही 1996 से 1998 के बीच वह रक्षा मंत्री भी बने. मुलायम सिंह यादव देश के पहले रक्षा मंत्री थे जो सियाचिन ग्लेशियर पर गए थे. मुलायम ने हमेशा भारत के लिए चीन को पाकिस्तान से बड़ा दुश्मन बताया.

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चीन को चार किलोमीटर पीछे ढकेला

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मुलायम के रक्षामंत्री रहते हुए बॉर्डर पर भारतीय सेना ने चीन को चार किलोमीटर पीछे ढकेल दिया था. यह मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ही थे जिनके रक्षा मंत्री रहते हुए शहीद जवानों के पार्थिव शरीर को पूरे सम्मान के साथ घर तक पहुंचाने का कानून बना था.

इससे पहले तक शरीर का अंतिम संस्कार सेना के जवान खुद ही करते थे और जवान के घर उसकी एक टोपी भेज दी जाती थी. 

जिस तरह कुश्ती में विरोधी को यह पता नहीं होता कि प्रतिद्वंद्वी पहलवान अगला दांव कौन सा चलने वाला है, मुलायम के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी इसी उधेड़बुन में रहते थे.

मुलायम की विश्वसनीयता पर सवाल

यही वजह थी कि समय-समय पर उनकी विश्वसनीयता को लेकर भी सवाल उठते रहे. मुलायम सिंह, पूरी उम्र चंद्रशेखर के साथ रहे, लेकिन साल 1989 में जब प्रधानमंत्री चुनने की बात आई तो उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह का समर्थन कर दिया.

कुछ दिनों बाद जब उनका वीपी सिंह से मोह भंग हो गया, तो उन्होंने फिर चंद्रशेखर का दामन थाम लिया. समाजवादी होने के नाते खुद को वामपंथ के करीब बताने वाले मुलायम सिंह ने साल 2002 में राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए उम्मीदवार एपीजे अब्दुल कलाम का समर्थन कर दिया. जबकि वामपंथी दलों ने कैप्टेन लक्ष्मी सहगल को उनके ख़िलाफ़ उतारा था.

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साल 2008 में परमाणु समझौते के मुद्दे पर वामपंथी दलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया, लेकिन मुलायम ने सरकार के समर्थन का फ़ैसला किया और मनमोहन सिंह की सरकार बच गई. 2019 के आम चुनाव में भी उन्होंने कहा कि वो चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनें.

यह कुछ ऐसे मामले रहे जिसको लेकर हमेशा उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाए गए. लेकिन उनकी एक और विशेषता भी रही. बीएसपी सुप्रीमो मायावती को छोड़ दें तो विरोधी दलों के नेताओं से भी नेताजी के संबंध अच्छे ही रहे. हालांकि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के प्रयासों की वजह से आख़िर में मायावती और मुलायम भी एक साथ एक मंच पर दिख ही गए थे. ये अलग बात है कि यह दोस्ती आगे नहीं चली और दोनों दल अलग हो गए.

लालू प्रसाद यादव ने श्रद्धांजलि देते हुए क्या लिखा?

आख़िर में आपको छोड़े जाता हूं लालू यादव के शब्दों के साथ, जो उन्होंने नेताजी को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है- 

हम सबके बड़े भाई हमारे प्यारे नेताजी-मुलायम सिंह यादव का इस दुनिया को अलविदा कहना हम सबको, करोड़ों हिन्दुस्तानियों के मन को तोड़ गया है.. बोझिल कर गया है. जबसे ये दुखद खबर सुनी तबसे कई बात बार-बार ज़ेहन में आ रही हैं. जब जातिगत जनगणना का महत्वपूर्ण विषय संसद में आया तो नेताजी, हम और कई अन्य साथियों ने सदन और पूरे देश के समक्ष ये बात पुरजोर तरीके से रखी कि जबतक इस बात का आंकड़ा ना मिल जाए कि कौन सी जाति आर्थिक-सामाजिक रूप से कहां है और उनकी संख्या कितनी है तब तक विकास की अवधारणा हवा-हवाई ही रहेगी.

कितनी बातें कहूं, और क्या क्या कहूं... इतिहास दर्ज करेगा और स्मरण रखेगा कि नेताजी ने सामाजिक न्याय की वैचारिकी से कभी समझौता नहीं किया...दुनिया को अलविदा कहने तक. जब विधायिका में महिलाओं के आरक्षण का मामला आया तो मुझे स्मरण है कि नेताजी, शरद जी और मैंने ये बात पुरजोर तरीके से रखी कि पिछड़े और अत्यंत पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण के अन्दर आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए.

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जेपी, लोहिया और कर्पूरी से समाजवाद और सामजिक न्याय के संघर्ष की विरासत हासिल करने वाले हम सबके लिए नेताजी का जीवन कई सन्देश देकर गया है जिससे आने वाली पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है. आज बैठकर सोचते हुए आपातकाल के दिनों की याद आ रही है जब निरंकुश अधिनायकवाद के खिलाफ हमने साझा संघर्ष किया था. कितना मुश्किल था उनदिनों ये सोचना भी कि हम इस लड़ाई में कामयाब होंगे..

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