Noor Inayat Khan : Adolf Hitler की सेना से लड़ने वाली भारत की बेटी नूर इनायत खान | Jharokha 13 September

Updated : Sep 14, 2022 13:03
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Mukesh Kumar Tiwari

Noor Inayat Khan Biography : नूर-उन-निसा इनायत ख़ान (Noor-un-Nisa Inayat Khan) भारतीय मूल की एक ब्रिटिश जासूस थीं. नूर ने सेकेंड वर्ल्ड वार के दौरान मित्र देशों के लिए जासूसी की. ब्रिटेन के स्पेशल ऑपरेशंस एक्जिक्यूटिव के तौर पर ट्रेंड नूर सेकेंड वर्ल्ड वार (Second World War) के दौरान फ्रांस के नाज़ी अधिकार क्षेत्र में जाने वाली पहली महिला वायरलेस ऑपरेटर थीं. इस आर्टिकल में हम नूर इनायत खान की जिंदगी (Noor Inayat Khan Life) को करीब से जानेंगे. हम जानेंगे कि किस तरह नूर ने हिटलर की सेना की जासूसी (How Noor Inayat Khan Spyed Hitler Army) की और नाजी सेना के सीक्रेट्स लंदन तक पहुंचाए... 

नूर इनायत खान के आखिरी पल (Noor Inayat Khan Last Moment)

सुबह का वक्त था... जेल की कोठरी में बंद लड़की की बर्फ बन चुकी उंगलियां बेमन से सलाखों को छू रही थीं... सीमेंट के जिस फर्श पर वह गिरी हुई थी उसी फर्श पर खून फैला था... ये वो खून था जो दूसरी कोठरियों से बहकर आ रहा था...  वो कराह रही थी और बाहर कैदी चीख रहे थे... कोठरी के अंदर बंद लड़की एक शब्द नहीं कह रही थी... तभी बगल में खड़े नाजी अफसर ने उसे जोर से एक लात मारी... ये चोट तेज तो थी लेकिन पहले की मार से कम... ऐसा लगा मानों ये लड़की अब उनके किसी काम की न हो... नाजी अफसर ने अब आस्तीन से अपनी भौहों को पोंछा और अपनी पिस्तौल निकाल ली...

अब फ्रेंच एक्सेंट में उसने लड़की से कहा- घुटनों पर आ जाओ... एक खामोशी फैली... चंद सेकेंड बाद इस लड़की को गोली मार दी गई... Gaby Halberstam ने अपनी किताब Real Lives: Noor Inayat Khan की शुरुआत इन्हीं पलों के जिक्र से की है... 

नूर इनायत खान भारत की वो बेटी थी जिसने द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों के लिए मुखबिरी की और नाजी सेना के सामने कभी घुटने नहीं टेके... आज झरोखा में हम पलटेंगे नूर इनायत की जिंदगी के पन्नों को... क्योंकि आज की तारीख का संबंध भी उन्हीं से है... 13 सितंबर 1944 को नूर इनायत खान को जर्मन कैंप में गोली मार दी गई थी...

सेकेंड वर्ल्ड वार में जासूस थी नूर इनायत खान (Noor Inayat was a British spy)

नूर इनायत खान सेकेंड वर्ल्ड वॉर में जासूस बनकर शामिल हुईं और इस महायुद्ध में उन्होंने अपना फर्ज निभाते हुए जान दे दी. 

नूर के पिता टीपू सुल्तान के वंशज थे (Noor's father was a descendant of Tipu Sultan)

नूर इनायत खान का पूरा नाम नूर उन निसा इनायत खान था. नूर के पिता हजरत इनायत खान भारत में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के वंशज थे. नूर की मां अमेरिकी थीं. नूर 4 भाई बहनों में सबसे बड़ी थीं. नूर का जन्म 1 जनवरी 1914 को मॉस्को, रूस में हुआ था. नूर के पिता सूफी मत को मानने वाले थे. वे भारत से सूफी मत को पश्चिमी देशों में लेकर गए.

नूर भी शुरुआत में अपने पिता की तरह संगीत में रुचि रखती थीं. पहले विश्वयुद्ध के बाद नूर के पिता परिवार के साथ मॉस्को से लंदन आ गए. नूर का बचपन वहीं बीता. नाटिंगहिल के नर्सरी स्कूल में पढ़ाई की. 1920 में परिवार फ्रांस में पैरिस के पास सुरेसनेम में रहने लगा.  1927 में पिता की मृत्यु के बाद 13 साल की छोटी सी उम्र में ही नूर के कंधों पर मां और 3 छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी आ गई.

स्वभाव से शांत, शर्मीली और संवेदनशील नूर ने कमाई के लिए म्यूजिक को चुना. वे पियानों पर सूफी संगीत का प्रचार प्रसार करने लगीं. वीणा बजाने में वे बहुत तेज थीं. उन्होंने कविताएं, बच्चों के लिए कहानियां लिखीं... साथ ही साथ फ्रेंच रेडियो में भी लगातार काम करने लगी. 1939 में उन्होंने जातक कथाओं से प्रेरित होकर ट्वेंटी जातका टेल्स लिखी.

नूर का प्रेमी यहूदी था (Noor's lover was a Jew)

लंदन में किताब छप गई. लेकिन जब सेकेंड वर्ल्ड वार शुरू हुआ तो वह परिवार के साथ समुद्री रास्ते से ब्रिटेन के फ्रालमाउथ कार्नवाल आ गईं. नूर ने यहां जब जर्मन सेना के अत्याचारों को आंखों से देखा तो उनके मन में नाजियों को लेकर एक नफरत बन गई. कई जगह ऐसा भी बताया जाता है कि नूर का प्रेमी यहूदी था और यहूदियों पर हो रहे अत्याचार ने नूर के अंदर बदले की आग जला दी थी.

नूर ने 19 नवंबर 1940 को ब्रिटेन एयरफोर्स में महिला सहायक के तौर पर काम संभाला. फ्रेंच भाषा की अच्छी जानकारी होने की वजह से स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप के अफसरों की नजर नूर पर गई. उन्हें वायरलेस ऑपरेशन के bilingual experienced detective के तौर पर ट्रेनिंग दी गई. 

नूर को स्पेशल ऑपरेशन एग्जिक्युटिव के ऑफिस में बुलाया गया. उनसे साफ कहा गया कि ट्रेनिंग के बाद उन्हें फ्रांस में जर्मनी के कब्जे वाले इलाके में भेजा जाएगा. उनके पास कोई सुरक्षा नहीं होगी और पकड़े जाने पर उन्हें गोली से मार दिया जाएगा. उस पल बिना किसी झिझक के नूर इस नौकरी के लिए तैयार हो गईं.

अब उन्हें एक सीक्रेट एजेंट की ट्रेनिंग दी गई. classic spy school में उन्हें गन और एक्सप्लोसिव चलाने, ताले तोड़ने, अंधेरे में दुश्मन को मारने, सोर्सेस तलाशने, डेड और लाइव लेटर बॉक्सेस का इस्तेमाल करने, कोड में संदेश भेजने की ट्रेनिंग दी गई. नूर को कोड नेम मेडेलीन दिया गया. 

16 जून 1943 को नूर ने बॉर्डर पार किया (Noor crossed the border on 16 June 1943)

और फिर वक्त आया उनके मिशन पर जाने का... जून 1943 में उन्हें एक नकली पासपोर्ट, कुछ फ्रांसीसी करेंसी, एक पिस्तौल और साइनाइड की 4 घातक गोली दी गई. अब नूर जोखिम से भरे अपने खतरनाक मिशन के लिए तैयार थीं. 16 जून की चांदनी रात में, उन्होंने सीमा पार की. नूर के साथ डायना राउडेन और सेसीली लेफोर्ट भी थीं. फ्रांसीसी धरती पर उन्होंने पेरिस जाने के लिए रास्ता ढूंढा और सर्किट में शामिल हो गईं. यह यूरोप का सबसे बड़ा स्पेशल ऑपरेशन एग्जिक्युटिव का सर्किट था, जिसे Prosper कहा जाता था. जल्द ही नूर ने वहां खुद को जमा लिया और ट्रांसमिशन शुरू कर दिया.

नूर, फ्रांसिस सुततील की लीडरशिप में वे काम रही थीं. वह एक मेडिकल नेटवर्क में नर्स के तौर पर शामिल थीं. वे भेष बदल बदलकर अलग अलग जगहों से ब्रिटिश अफसरों को अहम जानकारियां भेजने लगीं. सेकेंड वर्ल्ड वार में वे पहली एशियाई महिला जासूस थीं. नूर विंस्टल चर्चिल के भरोसेमंद लोगों में से एक बन चुकी थीं. 

एक हफ्ते में, प्रॉस्पर के साथ कुछ बुरा हुआ. गेस्टापो ने सभी टॉप ऑपरेटिव्स को पकड़ लिया... उनके वायरलेस जब्त कर लिए गए. नूर से तुरंत छिप जाने को कहा गया. 

नूर लंदन-पेरिस के बीच आखिरी रेडियो लिंक थीं (Noor was the last radio link between London-Paris)

SOE के दूसरे एजेंट्स के साथ वह छिप गईं. वह अब भी सूचनाएं लंदन भेज रही थीं लेकिन सीक्रेट पुलिस का घेरा उनके और करीब आ रहा था. इसी बीच लंदन के अफसरों ने उनसे संपर्क किया और वापस लौट आने को कहा. लेकिन नूर ने इनकार कर दिया. वह समझ रही थीं कि लंदन और पेरिस के बीच वही एक आखिरी रेडियो लिंक हैं और उनके वापस जाने से ये संपर्क खत्म हो जाएगा.

अगस्त के मध्य तक नूर पेरिस में बची एकमात्र ब्रिटिश एजेंट थीं. वह अकेले ही 6 रेडियो ऑपरेटर का काम संभाल रही थीं. अगले 3 महीने वह गेस्टापो की पकड़ से खुद को बचाने में कामयाब रहीं. ट्रेनिंग के नियमों पर चलते हुए, वह जल्द अपनी पोजिशन को बदल लेतीं, ट्रांसमिशन को शॉर्ट रखतीं और बालों को डाई करके अपना रंग रूप भी बदल लेती थीं. नूर की खबरों ने लंदन को मिलिट्री ऑपरेशन में खासी मदद पहुंचाई. नाजी नूर के बारे में जानते तो थे, वह ट्रांसमिशन को सुन भी सकते थे लेकिन उन्हें पकड़ नहीं पा रहे थे.

लेकिन नूर के पास घेरा अब और सख्त हो चुका था. अक्टूबर के बीच में वह सेफ थीं और फ्रांस से निकलने के लिए फ्लाइट भी पकड़ने जा रही थीं, लेकिन एक जासूस की गर्लफ्रेंड को नूर से ईर्ष्या हुई और धोखेबाजी की वजह से वह गिरफ्तार कर ली गईं. नूर का पता 1 लाख फ्रेंच करेंसी के बदले नाजियों को बता दिया गया. 13 अक्टूबर 1943 को नूर को गेस्टापो ने गिरफ्तार कर लिया गया. गेस्टापो उन्हें 84 एवेन्यू फॉक के हेडक्वार्टर ले गई. उन्होंने 2 बार जेल से भागने की कोशिश की लेकिन पकड़ ली गईं.

जर्मनी की जेल जाने वाली पहले एजेंट थीं नूर (Noor was the first agent to be jailed in Germany)

नूर को बेहद खतरनाक कैदी के तौर पर लेबल किया गया और वह जर्मनी की जेल में जाने वाली पहली महिला एजेंट बन गईं. उन्हें ब्लैक फॉरेस्ट के मुहाने पर बने फॉरझाइम जेल में भेजा गया. यहां वो 10 महीने रहीं. 

नूर को एकांत में अलग करके रखा गया... उनके पैरों में जंजीर बांध दी गई... वह खुद न तो खा सकती थीं और न ही खुद की सफाई कर सकती थीं. ये 10 महीने उनके लिए किसी नर्क जैसे थे. उन्हें लगातार पीटा जाता, टॉर्चर किया जाता और उनके पूछताछ की जाती. हिटलर की आर्मी ने ये सब किया लेकिन नूर ने अपना मुंह नहीं खोला.

13 सितंबर 1944 को नूर को मारने का आदेश हुआ (Noor was ordered to be killed on 13 September 1944)

11 सितंबर की रात उन्हें सेल से बाहर निकाला गया. हाथों में हथकड़ी लगाकर उन्हें कार्लश्रूहे ले जाया गया जहां वो अपने 3 और साथियों से मिलीं. इन सभी को एक ट्रेन से जर्मनी के डकाऊ यातना शिविर ले जाया गया. 13 सितंबर 1944 को चारों के सिर पर गोली मारने का आदेश हुआ. अंतिम सांस लेने से पहले नूर के होंठों पर एक ही शब्द था- लिबर्टे जिसका हिंदी में मतलब है आजादी ... जर्मन सेना ने लाख कोशिशें की लेकिन वे न तो नूर से कोई राज उगलवा सके और न ही उनका असली नाम जान पाए. 30 साल में अपने फर्ज के लिए जान दे देने वाली नूर सच में एक शेरनी थी...
  
16 जनवरी 1946 को फ्रांस ने नूर को सर्वोच्च नागरिक सम्मान द क्रोइक्स डी ग्युरे से सम्मानित किया. तीन साल बाद 1949 में इंग्लैंड ने उन्हें जॉर्ज क्रॉस से सम्मानित किया. युद्ध के 77 से ज्यादा सालों के बाद, नूर की कहानी को नई पीढ़ी को सुनाने की जरूरत है.

चलते चलते आज 13 सितंबर की दूसरी घटनाओं पर एक नजर डाल लेते हैं

1788 - न्यूयॉर्क शहर (New York City) अमेरिका की पहली राजधानी बना

1929 - भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ दास (Jatindranath Das) का निधन हुआ

2000 - भारत के विश्वनाथन आनन्द (Viswanathan Anand) ने शेनयांन में पहला फिडे शतरंज विश्व कप जीता

2008 - दिल्ली में तीन स्थानों पर 4 बम विस्फोट (3 Bomb Blast in New Delhi) हुए. इसमें 19 लोगों की मौत हुई

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