Palwankar Baloo Story: जब क्रिकेट में होता था हिंदू Vs मुस्लिम! दलित पलवंकर ने बदला था इतिहास | Jharokha

Updated : Dec 10, 2022 19:52
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Mukesh Kumar Tiwari

Palwankar Baloo Story : सूर्य कुमार यादव, श्रेयस अय्यर, संजू सैमसन, ऋषभ पंत..... भारतीय क्रिकेट टीम के इन खिलाड़ियों को मौका मिलने पर बहस दिखाई दे रही है. सोशल मीडिया पर ट्रोलर्स की एक ऐसी जमात है जो आरोप लगाती है कि बीसीसीआई में भी जातिवाद घुस गया है... हालांकि इन खिलाड़ियों के रिकॉर्ड्स ऐसे ट्रोलर्स की बोलती बंद कर देते हैं लेकिन अगर हम गुजरे दौर में जाएं, तो किसी जमाने में क्रिकेट में जातिवाद नहीं बल्कि धर्म हावी हुआ करता था... तब टीमें भी धर्म के नाम पर बनी होती थी... और इसका केंद्र होता था बॉम्बे शहर... 

तब इस धार्मिक क्रिकेट में जिस खिलाड़ी के साथ जातीय आधार पर निचले दर्जे का भेदभाव हुआ वह पलवंकर बालू (Palwankar Baloo) थे... लेकिन महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) की वजह से न सिर्फ ब्राह्मण हिंदू टीम में एक दलित कप्तान बना बल्कि इन धार्मिक टीमों और टूर्नामेंट का भी अंत हुआ...  

सच यही है कि तब क्रिकेट में घुसे धर्म के इस नासूर को महात्मा गांधी ने ही मिटाया था... हालांकि, एक तथ्य ये भी है कि बापू ने अपने 78 साल के जीवन में कभी क्रिकेट नहीं खेला... आज हम क्रिकेट के इसी गुजरे हुए कल के बारे में जानेंगे झरोखा के इस खास एपिसोड में...

1947 में आजादी से पहले धर्म के आधार पर होते थे क्रिकेट टूर्नामेंट

1947 में आजादी से पहले मुंबई (तब बॉम्बे) भारत में क्रिकेट का केंद्र हुआ करता था. इस शहर ने भारत के सबसे मशहूर क्रिकेट टूर्नामेंट की मेजबानी की और इसने देश के हर हिस्से के क्रिकेटरों और खिलाड़ियों को आकर्षित भी किया था. शहर में क्रिकेट टूर्नामेंट की शुरुआत 1877 में बॉम्बे जिमखाना में यूरोपीय और पारसियों के बीच मैच के साथ हुई थी... 1906 में हिंदू टीम टूर्नामेंट में शामिल हुई, 1912 में मुस्लिम जुड़े और 1937 में 'रेस्ट' नाम की एक टीम भी जोड़ी गई ताकि टूर्नामेट को पेंटैंगुलर यानी 5 टीमों वाला मुकाबला बनाया जा सके....

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बाएं हत्था ऑर्थोडॉक्स स्पिनर पलवंकर बालू बॉल घुमाने में माहिर थे... उनके बारे में कहा जाता है कि वह 20वीं सदी की शुरुआत के सबसे महान भारतीय क्रिकेटर थे. वह एक खेल आइकॉन भी थे और दलित समुदाय के लिए एक नायक थे.

उन्होंने अपनी काबीलियत से अंबेडकर को भी प्रभावित कर दिया था.... हालांकि बाद में दोनों एक दूसरे के खिलाफ हो गए थे... हम इसकी बात करेंगे लेकिन पहले जानते हैं कि क्रिकेट टीमें कैसे धर्म की डोर में बंधी हुई थी...

1875 में धारवाड़ में जन्मे थे पलवंकर बालू

1875 में धारवाड़ में चमड़े के मजदूरों के परिवार में जन्म हुआ था पलवंकर बालू का... चार भाइयों में सबसे बड़े थे... पिता 112 वीं इन्फैंट्री रेजिमेंट में एक सिपाही थे... नतीजा ये हुआ कि पलवंकर को अंग्रेजों का क्रिकेट देखने और सीखने को मिल गया.. वह और उनके भाई शिवराम पुणे में तैनात अंग्रेज अफसरों की उस किट से प्रैक्टिस करने लगे थे जिन्हें वे छोड़ दिया करते थे... 

भारतीय क्रिकेट का धार्मिक बंटवारा बॉम्बे ट्राएंगुलर टूर्नामेंट में टॉप पर पहुंच जाता था... यहां हिंदू, पारसी और ब्रिटिश कम्युनिटी की टीमें थ्री डे मैचों में एक दूसरे से भिड़ती थीं... 1912 में, टूर्नामेंट में खेलने के लिए मुस्लिम कम्युनिटी की एक टीम को आमंत्रित किया गया था, और इस तरह टूर्नामेंट बॉम्बे क्वाडरैंगुलर में बदल गया.

हिंदू टीम में अगड़ी जाति या ब्राह्मण ही हुआ करते थे... दलितों की कोई टीम नहीं थी लेकिन दलित पलवंकर ने अपने दमखम से डक्कन जिमखाना के ब्राह्मणों को मजबूर कर दिया था कि वे उन्हें टीम में शामिल करें... क्लब के ब्राह्मण ब्रिटिश पूना जिमखाना को हराने के लिए बेकरार थे. पलवंकर को पहले पूना जिमखाना (Poona Gymkhana) और फिर बॉम्बे हिंदू जिमखाना (Bombay Hindu Gymkhana) ने टीम में शामिल किया... लगे हाथ पलवंकर ने अपने भाइयों- शिवराम, गणपत और विट्ठल को भी टीमों में शामिल करा लिया. 1923 में हिंदू टीम के कप्तान पलवंकर के भाई विट्ठल थे और जब विट्ठल की कप्तानी में टीम ने क्वाटरेंगुलर टूर्नांमेंट में जीत हासिल की तब उच्च जाति के वही ब्राह्मण उन्हें कंधों पर उठाकर ले गए थे जो कभी दलितों को टीम में लेने का भी विरोध करते थे...

पलवंकर बालू की पहली नौकरी 3 रुपये मासिक वेतन की थी

पलवंकर की पहली नौकरी पुणे में 3 रुपये मासिक वेतन की थी. तब वे पारसियों के लिए पिच की देखरेख करने वाले ग्राउंडमैन के रूप में काम करते थे. यह 1892 का वक्त था... पूना क्लब ने मासिक वेतन पर 17 साल के बालू को रखा था. तब ये रकम उनकी प्रतिभा के लिए नहीं बल्कि नेट्स लगाने, उसे रोल करने और उस पिच को चुनने के लिए दी जाती थी, जहां अंग्रेज प्रैक्टिस करते थे... उनकी प्रतिभा अचूक थी, और अंग्रेजों ने जल्द ही नेट पर उन्हें बॉल कराने का मौका दे दिया...

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एक अंग्रेज बल्लेबाज थे जेजी ग्रिग... जब बालू उन्हें आउट करते, तो हर बार वे उन्हें 8 आने दिया करते थे.. यहीं पर उन्होंने अपनी स्पिन गेंदबाजी को और निखारा... लेकिन पलवंकर का गुस्सा अंग्रेजों के प्रति तब बढ़ गया जब उन्होंने देखा कि बैटिंग तो वे अपने अलावा किसी और को करने ही नहीं देते... लेकिन प्रतिभा जब असर दिखाने लगी तब हिंदू टीम को लगा कि उन्हें पलवंकर को अपने साथ लाना चाहिए...

जाति बंधन तोड़कर उन्हें टीम में शामिल किया गया... और पलवंकर की मदद से भारत की हिंदू क्रिकेट टीम ने अंग्रेजों को एक से ज्यादा मौकों पर हराया... 

1896 में पलवंकर को परमानंद जीवनदास के लिए चुना गया

उनकी प्रतिभा के बारे में बात जल्द ही बॉम्बे में फैल गई, और 1896 में पलवंकर को तब नए बने परमानंद जीवनदास हिंदू जिमखाना के लिए खेलने के लिए चुना गया. ये भी बॉम्बे ट्राएंगुलर में हिस्सा लेने वाली एक टीम थी... लेकिन उसी साल पुणे में फैले प्लेग के की वजह से पलवंकर भी अपने परिवार को बंबई ले गए. बॉम्बे में उन्हें आगे बढ़ने के लिए और भी अवसर मिले.

बालू क्रिकेट धुरंधर थे लेकिन भेदभाव की खाई पाटे नहीं पट रही थी... मैच में ब्रेक के दौरान उन्हें पवेलियन से दूर डिस्पोजेबल मिट्टी से बने एक अलग कप में चाय दी जाती थी. अगर वह अपना और चेहरा धोना चाहते थे, तो दलित समुदाय के एक अलग सेवक को उन्हें पानी देना होता था... बालू दोपहर का भोजन अपने समुदाय के सदस्यों के लिए अलग थाली में और दूसरी मेज पर खाते थे...

पलवंकर बालू 1911 में ऑल इंडिया टीम के खिलाड़ी थे

बालू 1911 में इंग्लैंड का दौरा करने वाली ऑल इंडिया टीम के खिलाड़ी थे, जहां उन्होंने 18.86 की औसत से 114 विकेट लेकर गेंदबाजी चार्ट में टॉप पोजिशन हासिल की थी...

महात्मा गांधी उस वक्त भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपने कदम जमा रहे थे, उन्होंने अस्पृश्यता की इस प्रथा पर तीखा हमला किया. उन्होंने 1920 में नागपुर में अपना एक प्रमुख भाषण दिया और अस्पृश्यता को हिंदू समाज में एक बड़ी बुराई बताया.

इसका उस समय के समाज पर गहरा असर पड़ा और इसके परिणामस्वरूप जल्द ही पारंपरिक विचारों में बदलाव आया. बालू के छोटे भाई और एक शानदार बल्लेबाज विट्ठल पलवंकर को 1923 में हिंदू टीम का कप्तान नियुक्त किया गया था. विट्ठल टीम का नेतृत्व करने वाले पहले पिछड़ी जाति के हिंदू बने...

हालांकि बाद में बालू ने सम्मान पाया... 1906 में हिंदुओं और अंग्रेजों के बीच बॉम्बे ट्राएंगुलर फाइनल उनके लिए एक अहम टूर्नामेंट साबित हुआ. पहले बल्लेबाजी करते हुए हिंदुओं ने 242 रन बनाए और अंग्रेजों को 191 रन पर आउट कर दिया. दूसरी पारी में, हिंदुओं को 160 रन पर आउट कर दिया गया, जिससे अंग्रेजों को 212 रनों का लक्ष्य मिला.

दूसरी पारी में बालू के पांच विकेट की अगुवाई में, अंग्रेजों को महज 102 रनों पर आउट कर दिया गया और हिंदुओं को जीत दिलाई. स्वतंत्रता संग्राम जोरों पर था और इस जीत ने भी माहौल में जोश भर दिया था... 

पलवंकर बालू से प्रभावित से डॉ. भीमराव अंबेडकर

1911 में एक विदेशी टूर्नामेंट में शानदार प्रदर्शन के बाद बीआर अंबेडकर ने बालू के सम्मान में कार्यक्रम रखा..

इतिहासकार धनंजय ने अपनी पुस्तक 'डॉ अम्बेडकर: लाइफ एंड मिशन' में लिखा है: "बॉम्बे के सिडेनहैम कॉलेज में एक अम्बेडकर ने बालू को सम्मानित करने के लिए समारोह आयोजित किए. अंबेडकर बालू को दलितों का नायक मानते थे, उन्हें अपने और अपनी जाति के अन्य लोगों के लिए एक प्रेरणा के रूप में प्रदर्शित करते थे, लेकिन बाद के वर्षों में जाति व्यवस्था को खत्म करने के तरीकों को लेकर दोनों के बीच दरार पैदा हो गई.

पलवंकर बालू को हिंदू जिमखाना में खेलने के लिए बुलाया गया

मैदान पर अपने कौशल के बावजूद, बालू को कभी भी बॉम्बे क्वॉडरैंगुलर में खेल रही हिंदू टीमों की कप्तानी के लिए नहीं चुना गया. 1910 से 1920 तक हर साल उन्हें कप्तान बनाने के लिए अभियान चलाए गए, लेकिन ये सारे प्रयास व्यर्थ गए. ये सब तब था जब 1913 में तब कप्तान एमडी पई ने खुद स्वीकार किया था, 'कप्तान का सम्मान मेरे दोस्त मिस्टर बालू को मिलना चाहिए था. लेकिन 1920 में नाटकीय घटनाक्रम हुआ... बालू टीम से बाहर कर दिए गए... इसके विरोध में उनके भाई भी टीम से हट गए...

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बाद में बालू को वाइस कैप्टन के तौर पर हिंदू जिमखाना के लिए खेलने के लिए बुलाया गया... कैप्टन देवधर को हटा दिया गया था और सब्सिट्यूट कैप्टन एमडी पई ने भी मैदान छोड़ दिया... इसके बाद बालू को कैप्टन बनाया गया.

अंबेडकर Vs पलवंकर

यह लगभग उसी समय था जब महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता की घिनौनी प्रथा के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था. हालाँकि, इस आंदोलन को 1932 में अपने भीषण परीक्षण से गुजरना पड़ा. ब्रिटिश सरकार द्वारा जारी किए गए दलित वर्गों के लिए अलग निर्वाचक मंडल के मुद्दे पर गांधीवादी बालू महात्मा गांधी के कठोर आलोचक अंबेडकर से भिड़ गए थे. वह उनके खिलाफ चुनाव में उतरे थे..

बालू ने हिंदू समुदाय में ज्यादा दलित एकीकरण पर गांधी की लाइन ली, अम्बेडकर ने महसूस किया कि जीवन के इस तरीके में भेदभाव के अलावा कुछ भी नहीं है. गांधी ने महसूस किया कि दलितों के लिए अलग निर्वाचन, हिंदू समाज को तोड़ देगा. उन्होंने इसका विरोध किया और जब अंबेडकर ने इस कदम का समर्थन किया तो गांधी पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन पर चले गए.

जब गांधी की तबीयत खराब होने लगी, तो बालू और तमिल नेता एमसी राजा ने अंबेडकर से अपना मन बदलने की गुहार लगाई, और राहत की बात ये थी कि दोनों पक्ष पूना पैक्ट नाम के एक समझौते पर पहुंचे जिसमें सभी दलितों के लिए आरक्षित निर्वाचन-क्षेत्र पर सहमत हो गए.

1937 में, बॉम्बे प्रेसीडेंसी के चुनाव में अम्बेडकर और बालू दोनों का सामना हुआ... उस समय तक, बालू ने दलितों को हिंदू धर्म से बाहर करने के लिए अंबेडकर के आह्वान का विरोध किया था...

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भारतीय क्रिकेट इतिहास पर अपनी प्रभावशाली पुस्तक, 'ए कॉर्नर ऑफ ए फॉरेन फील्ड' में लिखा है- यह सरदार पटेल ही थे, जिन्होंने बॉम्बे प्रेसीडेंसी चुनावों के लिए बालू को अंबेडकर के खिलाफ खड़ा करने का फैसला किया था. हालांकि, बालू अंबेडकर को चुनौती देने के लिए बहुत उत्साहित नहीं थे. जनवरी 1937 में उन्होंने कथित तौर पर एक भीड़ से कहा था कि वह कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए सहमत हुए, बिना यह जाने कि वह किस सीट से चुनाव लड़ेंगे. बालू उस चुनाव में 2000 से कुछ अधिक वोटों से हार गए थे.

1940 में हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच मतभेद बढ़ने लगे थे. साम्प्रदायिक आधार पर खेले जाने वाले प्रसिद्ध क्रिकेट टूर्नामेंट की आलोचना की गई जबकि क्षेत्रीय आधार पर खेली जाने वाली रणजी ट्रॉफी को जबरदस्त समर्थन मिला.

हिंदू टीम के ठिकाने पीजे हिंदू जिमखाना ने बॉम्बे पेंटांगुलर में भाग लेने के बारे में एक राय पर पहुंचने के लिए उस समय भारत की सबसे बड़ी शख्सियत महात्मा गांधी से परामर्श करने का फैसला किया. गांधी ने सांप्रदायिक टूर्नामेंट का बहिष्कार किया और खेल में धर्म मिलाए जाने पर दुख जाहिर किया.. हिंदू टीम ने उनकी बातों को माना और उस साल के टूर्नामेंट में हिस्सा नहीं लिया. 1946 में विभाजन के बढ़ते तनाव के साथ प्रतियोगिता को आखिरकार खत्म कर दिया गया.

वहीं, क्रिकेटर से राजनेता बने बालू ने आज़ादी की सुबह देखी और जुलाई 1955 में बंबई में उनका निधन हो गया. सांता क्रूज़ श्मशान में उनके अंतिम संस्कार में संसद और प्रांतीय विधानसभा में दलित वर्गों के सभी प्रतिनिधियों ने भाग लिया.

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