Swami Vivekananda Chicago speech 1893: स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था. वे वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे. उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त (Narendra Nath Dutt) था. विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में साल 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा (World Religion Conference 1893) में भारत की ओर से सनातन धर्म की नुमाइंदगी की थी. भारत का आध्यात्मिकता से भरा वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप में स्वामी विवेकानन्द ने ही पहुंचाया. आज हम स्वामी विवेकानंद के उस भाषण के बारे में जानेंगे जो उन्होंने धर्म सम्मेलन में दिया था.
साल 1893 भारत के लिए कई शुभ संकेत लेकर आया था... इसी साल 21 साल की उम्र में अरविंद घोष (Sri Aurobindo Ghosh) 15 साल इंग्लैंड रहने के बाद भारत वापस लौट आए. इसी साल मोहनदास करमचंद गांधी (Mohan Das Karamchand Gandhi) एक मुकदमे के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका गए, इसी साल इंग्लैंड से एनी बेसेंट (Annie Besant) भारत आईं और थियोसॉफिकल सोसाइटी की अध्यक्षा बनीं. इसी साल लोकमान्य तिलक (Lokmanya Tilak) ने महाराष्ट्र में गणपति उत्सव की शुरुआत की, जो धार्मिक एकता का सूत्र बन गया. और इसी साल 30 साल के हो चुके विवेकानंद ने शिकागो के धर्म सम्मेलन में ऐसा भाषण दिया जिसकी दुनिया आज भी मुरीद है.
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आज की तारीख का संबंध 1893 के उसी विश्व धर्म सम्मेलन से है, जिसमें भाषण देकर विवेकानंद अंतराष्ट्रीय फलक का ध्रुव तारा बन गए थे... विवेकानंद ने इस सत्र में जिन-जिन दिनों में भाषण दिया, उनमें से एक दिन 19 सितंबर भी था... आज हम रोशनी डालेंगे विवेकानंद की जिंदगी के पन्नों पर.
नरेंद्रनाथ अपनी नई वेशभूषा में विवेकानंद बनकर शिकागो धर्म सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए खेतड़ी से बंबई के लिए निकल पड़े थे. मद्रास के एक शिष्य आलासिंगा और खेतड़ी के महाराजा ने इसके लिए उनकी मदद की थी.... विवेकानंद 31 मई 1893 को पीएंडओ कंपनी के पेनिनसुलर जहाज से बंबई से अमेरिका के लिए रवाना हुए. स्वामी विवेकानंद बंबई से कोलंबो, और फिर सिंगापुर होते हुए हॉन्ग कॉन्ग पहुंचे.
जापान में जहाज बदला गया और याकोहामा से जहाज प्रशांत महासागर पार करके बैंकूवर बंदरगाह पर आ गया. इसी जहाज पर याकोहामा से विवेकानंद के साथ नामचीन उद्योगपति जमशेदजी नुसरवानजी टाटा भी थे. जमशेदजी ने टाटा स्टील प्लांट लगाने को लेकर उनसे बात की तो विवेकानंद ने उन्हें जो सलाह दी वो बाद में टाटा घराने का सूत्र वाक्य ही बन गया.
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बहरहाल, विवेकानंद 30 जुलाई 1893 को शिकागो पहुंचे. यहां वह एक होटल में रुके. यहीं पर उन्हें मालूम हुआ कि विश्व धर्म सम्मेलन 11 सितंबर 1893 से शुरू होनेवाला है. इसके साथ ही यह भी पता चला कि किसी धर्म के प्रतिनिधि के तौर पर नामांकन की अवधि खत्म हो चुकी है. तब उनकी मदद की बैंकूवर में मिली केट सेनबोर्न और उनके दोस्त हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मिस्टर राइट ने
शिकागो में एक और महिला ने विवेकानंद की मदद की जिसके बाद उनके लिए धर्म सम्मेलन के रास्ते खुल गए थे... अब वह पल करीब आ रहा था जब दुनिया इस चमत्कारी हिंदू संन्यासी से रू-ब-रू होने वाली थी...
11 सितंबर 1893 को शिकागो के आर्ट इंस्टिट्यूट के कोलंबस ऑडिटोरियम में विश्व धर्म सम्मेलन ठीक 10 बजे, 10 धर्मों- जुडाइज्म, इस्लाम, बौद्ध, हिंदू, ताओ, कंफ्यूशियस, शिंतो, जरथुस्त्र, कैथलिक और प्योरिटन के प्रतिनिधियों के साथ शुरू हुई... इन सभी धर्मों के सम्मान में 10 घंटियां बजाई गई. धर्म सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ. बैरोज ने जब अपने भाषण में भारत को धर्मों की जननी कहकर बुलाया, तभी माहौल में एक पवित्रता घुल गई थी.
स्वामी विवेकानंद ने जब अपने भाषण की शुरुआत- मेरे अमेरिकी बहनों और भाइयों से की... एक अज्ञात शक्ति जैसे सभी के मन को छू गई थी... विवेकानंद की आवाज उस दिन अमृत का तेज बरसा रही थी. उनके शब्द थे- मुझको ऐसे धर्म का होने पर गर्व है, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सब धर्मों को मान्यता देने की शिक्षा दी है. ऐसे धर्म में जन्म लेने का मुझे अभिमान है जिसने पारसी जाति की रक्षा की और उसका पालन अब भी कर रहा है.
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अब तक जो शख्स अमेरिका की सड़कों पर अनजान बनकर घूम रहा था, आज अपने पहले भाषण से ही अमेरिका में प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंच चुका था... सारे समाचार पत्र विवेकानंद का गुणगान कर रहे थे. लोग उन्हें सुनने के लिए घंटों इंतजार करने लगे थे.
14 सितंबर को स्वामी विवेकानंद का भाषण महिलाओं की हालात पर हुआ. उन्होंने कहा- हिंदू महिला बेहद आध्यात्मिक होती है. अगर हम उसके गुणों की रक्षा कर सके और उसका बौद्धिक विकास कर सके तो आने वाले युग की हिंदू महिला विश्व की आदर्श नारी होगी.
15 सितंबर 1893 को डॉ. बैरोज के कहने पर विवेकानंद ने कुएं के मेढक और समुद्र के मेढक की कथा सुनाते हुए कहा- मेरा कुआं ही सारा संसार है, जो ऐसा सोचने हैं, उनका दायरा बहुत छोटा है. यहां इसी संकीर्णता को तोड़ने की कोशिश की गई है. इतना सुनते ही सभागार में तालियां गूंज उठी.
19 सितंबर 1893 को विवेकानंद का भाषण हिंदू धर्म पर हुआ... अब उन्होंने अपना लिखित भाषण पेश किया. इसे सुनकर सभी हैरान रह गए... इस लिखित भाषण में हिंदू धर्म का पूरा सार कह दिया गया था.
24 सितंबर 1893 को विवेकानंद को थर्ड यूनिटेरियन चर्च में प्रवचन के लिए बुलाया गया. वहां उन्होंने कहा कि एक ही पिता की संतान होने की वजह से हम सबमें भाईचारा होना चाहिए. उनकी इन बातों से कुछ ईसाई खुश हुए जबकि कुछ ईसाई उनके दुष्प्रचार में लगे रहे.
विश्व धर्म सम्मेलन में विवेकानंद के प्रवचन के बारे में डेली हेराल्ड ने लिखा- स्वामी विवेकानंद को सम्मेलन के अंत तक रोककर रखा जाता था, ताकि उनका भाषण सुनने के लिए लोग सेशन के आखिर तक इंतजार करें. लुइसवर्क ने अपनी किताब विवेकानंद इन द वेस्ट में लिखा है- कोलंबस सभागार में बड़ी भीड़ हंसी ठिठोली करती रहती थी... एक दो घंटे दूसरे भाषणों को बिना मन के सुनती लेकिन उसके बाद स्वामी विवेकानंद का भाषण ध्यान से सुनती. विवेकानंद इस सम्मेलन के सबसे लोकप्रिय वक्ता थे.
विश्व धर्म सम्मेलन से विवेकानंद की ख्याति ऐसी बढ़ी कि अमेरिका के कई हिस्सों से उन्हें न्यौते मिलने लगे. वह करीब 2 साल तक अमेरिका के अलग अलग हिस्से में हिंदू धर्म की पताका फहराते रहे. इंग्लैंड से भी बुलावा आया. यहां उन्हें अमेरिका से भी ज्यादा सम्मान मिला. वहां के लोग उन्हें साइक्लोन हिंदू यानी आंधी पैदा करने वाला हिंदू कहकर बुलाने लगे.
वे फिर अमेरिका आए और कुछ दिनों तक प्रचार करने के बाद एक बार फिर इंग्लैंड आ गए. 28 मई 1896 को उन्होंने ऑक्सफोर्ड के प्रोफेसर मैक्सम्यूलर से मुलाकात की. जब विवेकानंद किसी जगह स्टेशन जाने के लिए गाड़ी का इंतजार कर रहे थे तब कई लोग उनके मिलने पहुंचे, इनमें से एक प्रो. मैक्सम्यूलर भी थे.
विवेकानंद ने पूछा- मुझे विदा करने के लिए इतनी मुश्किल सहने की क्या जरूरत थी? इस पर प्रो. मैक्सम्यूलर ने भावुक होकर कहा- श्री रामकृष्ण के काबिल शिष्य के दर्शन का सौभाग्य हर रोज नहीं मिलता.
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दुनिया में ख्याति बटोरकर विवेकानंद 6 फरवरी 1897 को मद्रास पहुंचे. स्टेशन पर न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम अय्यर के नेतृत्व में सैंकड़ों लोग उनके स्वागत के लिए पहुंचे थे. मद्रास में 9 दिनों तक कार्यक्रम हुए. 20 फरवरी 1897 को विवेकानंद कलकत्ता पहुंचे.
4 जुलाई 1902 को विवेकानंद का निधन हुआ
हालांकि देश-दुनिया में भारत की ख्याति बढ़ा रहे विवेकानंद के लिए 4 जुलाई दिन जीवन का आखिरी दिन साबित हुआ. स्वामी विवेकानंद के लिए 4 जुलाई 1902 का दिन आम दिनों जैसा ही था. उनके साथी शिष्यों को कहीं से अंदेशा नहीं था कि यह गुरू का आखिरी दिन होने वाला है.
स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरू पूज्य श्री रामकृष्ण परमहंस के सपनों को पूरा करने के लिए अपने जीवन में बहुत संघर्ष किया था. वे वेदांत का संदेश फैलाने के लिए पश्चिमी देशों में गए. वह इस दुनिया में रहे लेकिन कभी इसके नहीं रहे- उनका मन हमेशा अपने गुरू के साथ रहता था. वह बहुत केंद्रित और दृढ़ निश्चयी थे. स्वामी जी अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद शिष्यों को आध्यात्मिक लेक्चर देते थे.
अपने अंतिम दिन, स्वामीजी जल्दी उठे और ध्यान के लिए गए. अन्य दिनों से उलट उन्होंने ध्यान पूरा करने में उस रोज ज्यादा वक्त लिया. 11:00 बजे अपना ध्यान खत्म करने के बाद वे बाहर गए और अपने शिष्यों से मां काली की पूजा की व्यवस्था करने को कहा. दोपहर में उन्होंने अच्छे लंच का आनंद लिया. दोपहर के भोजन के बाद उन्होंने संस्कृत व्याकरण पर 3 घंटे की क्लास ली. शायद, वह जानते थे कि उनके शिष्यों के साथ यह उसका आखिरी दिन था. उन्होंने क्लास को बहुत ही रोचक बना दिया था, मानो वह वह सब कुछ उस एक दिन में दे देना चाहते थे जो वह जानते थे.
शाम को स्वामीजी मानसिक रूप से थकी हुई हालत में कमरे में लौटे. उन्होंने करीब एक घंटे तक ध्यान किया. ध्यान के बाद उन्हें एक अजीब सी घुटन महसूस हुई- मानो उनकी सांसें भारी हो रही हों. उन्होंने अटेंडेंट से सभी दरवाजे और खिड़कियां खोलने को कहा. स्वामी जी हाथ में माला लेकर अपने गुरू के नाम का जप करते हुए बिस्तर पर लेट गए. जब उनका अटेंडेंट उनके पैरों की मालिश कर रहा था, वह रात 9:10 बजे गहरी नींद में चले गए. उसके नाक और मुंह से खून निकलने लगा. उनका शरीर स्थिर और ठंडा हो गया. किसी और दुनिया में जागने के लिए ही वह गहरी नींद में चले गए थे.
स्वामी जी के निधन ने सबको चकित कर दिया था.
स्वामी चेतनन्द लिखते हैं:
"हम चाहते थे कि स्वामी जी की एक आखिरी तस्वीर ली जाए, लेकिन स्वामी ब्रह्मानंद ने यह कहते हुए अनुमति नहीं दी, 'स्वामीजी की कई अच्छी तस्वीरें हैं; यह दुखद तस्वीर सभी को झकझोर कर रख देगी.' बाद में, स्वामी ब्रह्मानंद, अन्य भिक्षुओं और ब्रह्मचारियों ने स्वामीजी के चरणों में फूल चढ़ाए. अंत में, हरमोहन मित्र (स्वामीजी के एक सहपाठी) और अन्य भक्तों ने फूल चढ़ाए. बाद में स्वामीजी के पैरों को लाल रंग से रंगा गया और कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़ों पर पैरों के निशान बनाए गए. सिस्टर निवेदिता ने भी एक नए रूमाल पर पदचिह्न लिया. मैंने एक सुंदर गुलाब (पूरी तरह से खुला नहीं) लिया, उस पर चंदन का लेप लगाया, उसे स्वामी जी के चरणों में छुआ और स्मृति चिन्ह के रूप में अपनी सामने की जेब में रख दिया.
स्वामी ब्रह्मानंद स्वामी विवेकानंद के शरीर पर बच्चे की तरह रो पड़े. जब शारदानंद ने उन्हें उठाया, तो ब्रह्मानंद ने कहा: "ऐसा लगता है कि मेरी आंखों के सामने से पूरा हिमालय ओझल हो गया हो!"
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स्वामीजी के अंतिम शब्द थे कि वे अपने जीवनकाल में उनके द्वारा दिए गए संदेशों के माध्यम से अपनी मृत्यु के बाद भी अपने भक्तों के साथ रहेंगे।
चलते चलते 19 सितंबर को हुई दूसरी घटनाओं पर भी एक नजर डाल लेते हैं
1965 - NASA की अंतरिक्ष यात्रील सुनीता विलियम्स (Sunita Williams) का जन्म हुआ
1991 - इटली के ऐल्प्स पर्वतों (Alps Mountain) पर बर्फ में प्राकृतिक ममी मिली. यह करीब 5000 साल पुरानी थी
2000 - कर्णम मल्लेश्वरी (Karnam Malleswari) ने ओलंपिक के वेटलिफ्टिंग मुकाबले में कांस्य पदक जीता
2008 - दिल्ली के बटला हाउस एनकाउंटर (Delhi Batla House Encounter) में पुलिस इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा (Inspector Mohan chand Sharma) शहीद हो गए