Why was India in a hurry to recognize China: नेहरू ने चीन को जल्दबाजी में क्यों दी मान्यता? | Jharokha

Updated : Jan 01, 2023 20:25
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Editorji News Desk

Why was India in a hurry to recognize China : जिस चीन को हमारे कई बड़े नेताओं ने दुश्मन नंबर वन बताया है क्या आप जानते हैं उसी चीन को मान्यता देने वाले देशों में हम पहली कतार में शामिल थे... वैसे तो चीन हमसे दो साल बाद अस्तित्व में आया लेकिन उसे मान्यता देने के लिए हमने तुरंत ही अपनी दोनों हाथें खोल दी थी यह तब था जबकि हमने अभी तक अपना संविधान भी तैयार नहीं किया था....आज इसकी बात इसलिए क्योंकि आज ही के दिन यानी 30 दिसंबर 1949 को  भारत ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (People's Republic of China) को मान्यता दी थी. ऐसे में सवाल ये है कि भारत ने आजादी के तुरंत बाद चीन को एक देश के तौर पर मान्यता देने में इतनी जल्दबाजी क्यों की?

अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद दोनों देशों ने दूतावासों की स्थापना की थी. हालांकि 1948 में चीन के अंदर माओ की कम्युनिस्ट सेना का फैलाव हो रहा था और तब चीन में च्यांग काई-शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी सरकार अपने अंतिम दिन गिन रही थी...

1948 में चीन में हुआ था गृहयुद्ध

नेहरू की नजरें चीन के गृहयुद्ध पर टिकी हुई थीं... सितंबर 1948 तक भारतीय राजदूत केएम पणिक्कर (K. M. Panikkar), राष्ट्रपति च्यांग काई-शेक (Chiang Kai-shek) की धराशायी होती सत्ता के बारे में हर खबर दिल्ली तक पहुंचा रहे थे. कम्युनिस्ट जनरल लिन बियाओ ने चीन के पूरे उत्तर-पूर्वी क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था और बीजिंग का पतन होना तय था. दक्षिण में जनरल लियू बोचेंग ने हसुचो (सूज़ौ) की लड़ाई में राष्ट्रवादी ताकतों को हरा दिया था... 

नेहरू ने ये अंदाजा लगाया कि अगर कम्युनिस्ट शासन बनना तय है तो क्यों न वक्त से पहले इस भावी सरकार से संपर्क साध लिए जाएं... नेहरू के मन में डर तिब्बत-भारत सीमा को लेकर था... वह चीन को नाराज नहीं करना चाहते थे...  भारत सरकार की हरी झंडी मिलने के बाद पणिक्कर चीनी कम्युनिस्टों से मुलाकात करने लगे और संबंध बनाने लगे.

भारत ने ठुकरा दिया था चीन में मध्यस्थता का प्रस्ताव

इसी बीच तुर्की में चीन की राष्ट्रवादी सरकार के राजदूत ने वहां के भारतीय राजदूत को चियांग काई-शेक और माओ जेडोंग के बीच मध्यस्थता करने के लिए भारत से गुजारिश की. इस सुझाव को भारतीय सरकार ने खारिज कर दिया था... नेहरू ने अनुमान लगाया कि राष्ट्रवादी शासन ढह रहा था और ऐसे में इस बातचीत का कोई अर्थ नहीं है. 

दरअसल, नेहरू ये भी मानते थे कि विश्व युद्ध के बाद अगर एशिया को आगे बढ़ना है तो चीन की भूमिका इसमें अहम होगी. उन्होंने अप्रैल 1947 में एशियाई संबंध सम्मेलन में ऐसा कहा था. इस दौरान उन्होंने चीन को 'वह महान देश कहा था जिसका एशिया पर बहुत अधिक कर्ज है और जिससे बहुत ज्यादा उम्मीदें हैं'. साफ था कि नेहरू चीन को खुश रखने की हर मुमकिन कोशिश पहले से ही कर रहे थे.

भारत के लिए चीन में नए कम्युनिस्ट शासन को जल्द मान्यता दिए जाने की दूसरी वजहें भी थीं... पहला भारत की उत्तरी सीमा और तिब्बत के हालात से इसका संबंध था. राष्ट्रपति चियांग काई-शेक की सरकार ने भारत की स्वतंत्रता के बाद दोहराया था कि तिब्बत चीन का हिस्सा था और कहा था कि 1914 का शिमला समझौता अब मान्य नहीं था और चीन मैकमोहन रेखा को सीमा के रूप में स्वीकार नहीं करता था.

भारत को तिब्बत पर चीन की मंशा का डर था

भारत सरकार तिब्बत को "मुक्त" करने के चीनी कम्युनिस्टों के इरादे को जानती थी. गंगटोक (सिक्किम) में भारतीय राजनीतिक अधिकारी की एक रिपोर्ट विदेश मंत्रालय को भेजी रिपोर्ट में कहा गया कि तिब्बत पर कब्ज़ा या वर्चस्व भारत की सुरक्षा के लिए खतरा होगा. इसने भी भारत की चिंता भी बढ़ा दी थी.

तब भारत सरकार ने अनुमान लगाया होगा कि नए कम्युनिट शासन को जल्द मान्यता देने से रिश्ते में नजदीकियां बढ़ जाएंगी. इससे सीमा विवाद सुलझ सकेगा.

एक दूसरा विचार घरेलू था... भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन बढ़ रहा था... जून-जुलाई 1949 में बीजिंग में राजदूत पणिक्कर और वाशिंगटन में राजदूत विजयलक्ष्मी पंडित को लिखे पत्रों में नेहरू ने भारत में कम्युनिस्टों पर अपनी चिंताओं को जाहिर किया था.

नेहरू परेशान थे कि अगर चीनी कम्युनिस्टों को लेकर वह राजनीतिक दुश्मनी दिखाते हैं तो उनके लिए भारत में ही मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. 27 सितंबर 1949 को माओत्से तुंग (Mao Tse Tung) के नए गणराज्य की स्थापना की घोषणा  के चार दिन पहले, जनरल झोउ एनलाई ने बीजिंग में राजदूत पणिक्कर से मुलाकात की. पणिक्कर के मुताबिक झोउ ने भारत के साथ मित्रता पर विशेष बल दिया था... उन्होंने यह भी बताया कि दोनों देशों के बीच तिब्बत के संबंध में कोई मतभेद नहीं था और वह विशेष रूप से तिब्बत में भारत के हितों की हर तरह से रक्षा करने के लिए तैयार थे.

पणिक्कर ने की चीन को मान्यता देने की वकालत

भारत सरकार ने इसका अर्थ यह निकाला कि नई चीनी सरकार भारत के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने के लिए वही सोच रखती थी जैसा भारत रखता था...पणिक्कर को नेहरू के निर्देश थे कि "सबसे पहले, चीन और हमारे बीच तिब्बत में हमारे हितों और तिब्बत और भारत के बीच साझा सीमा के बारे में बातचीत होनी चाहिए".

1 अक्टूबर 1949 को जब माओत्से तुंग ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की औपचारिक स्थापना की घोषणा की, तब से चीजें बदलने लगीं. भारत लौटने के तुरंत बाद, पणिक्कर ने नए चीनी शासन की शीघ्र मान्यता के लिए भारत सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. नेहरू ने 17 नवंबर 1949 को विदेश मंत्रालय को एक नोट रिकॉर्ड किया जिसमें उन्होंने कहा कि "पणिक्कर और स्टीवेन्सन दोनों चिंतित हैं कि जल्द से जल्द मान्यता दी जानी चाहिए. उन्हें लगता है कि देरी हानिकारक हो सकती है.”

हालांकि, भारत सरकार में कुछ और भी प्रभावशाली आवाजें थीं जिन्होंने इस संबंध में धैर्य बरतने की सलाह दी...इनमें एक नाम उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल का भी था. पणिक्कर ने अपने संस्मरणों में उल्लेख किया है कि भारत के गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी ने नेहरू से इस मामले में सोच विचार करके फैसला लेने की सलाह दी थी और पटेल भी यही चाहते थे... लेकिन ऐसी किसी सलाह को नहीं माना गया और चीन को मान्यता दे दी गई.

Excerpted with The Long Game: How The Chinese Negotiate With India, Vijay Gokhale, Vintage.

ये भी देखें- How did China conquered Tibet?: शांत देश तिब्बत को चीन ने कैसे बनाया 'निवाला'? || Jharokha

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