एक कथन है कि उगते हुए सूरज को सभी सलाम करते हैं. लेकिन उनकी चमक की चकाचौंध में हम अक्सर उन प्रतिभावान लोगों को भूल जाते हैं जिनके जीवन का सूरज कड़ी मेहनत और लगन के बावजूद कभी उग नहीं पाया. किन्हीं को आर्थिक तंगी ने डसा तो किन्हीं को अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के आगे घुटने टेकने पड़े. क्रिकेट की भी कुछ ऐसी ही कहानी है.
हाल ही में दो बार की वर्ल्ड चैम्पियन वेस्टइंडीज को हराकर पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवा चुके स्कॉटलैंड की दास्तान भी कुछ ऐसी ही है. स्कॉटलैंड की जीत के बाद पूर्व कप्तान काइल कोएत्ज़र ने इस बारे में एक बड़ा खुलासा किया है. उन्होंने मैच के बाद इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि स्कॉटलैंड में खिलाड़ियों के लिए कोई फाईनेंशियल रिवॉर्ड नहीं है.
उन्होंने आगे कहा,“घर पर रहने वाले युवा खिलाड़ियों को प्रोफेशनल बनाने के लिए काफी है. वह ठीक है. लेकिन जो लोग सीनियर क्रिकेट में चले गए हैं और थोड़े बड़े हो गए हैं, 20 की उम्र और उससे ज्यादा के लोग जिन पर परिवार की जिम्मेदारी है, उनके लिए इस फील्ड में पैसा नहीं है. इसलिए इसे आगे बढ़ाने का एकमात्र तरीका यह है कि वे साल में एक या दो टूर्नामेंट खेलें. यदि वे नहीं करते हैं, तो यह सिर्फ एक निरंतर संघर्ष है. अपने किराए का भुगतान कैसे करोगे? आप कहां रहोगे? आप अपना पेट कैसे पालेंगे?"
ये इस मामले में कोई पहला किस्सा नहीं है. इससे पहले बरमूडा के क्रिकेटर ड्वेन लेवरॉक ने वर्ल्ड कप 2007 में सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा था. उस साल बरमूडा ने विश्व कप में पहली बार क्वालीफाई किया था. आपको जानकर हैरानी होगी कि रोबिन उथप्पा का बेहतरीन कैच पकड़ कर वायरल हुए ड्वेन एक वैन ड्राइवर थे.
ये बात सिर्फ छोटे देशों की ही नहीं है बल्कि साउथ अफ्रीका जैसे बड़े देश की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है. वेन पारनेल और राइली रोसौव जैसे साउथ अफ्रीका के कई खिलाड़ी भी कोलपैक पैक्ट के तहत भी पैसों के लिए अपना देश छोड़कर काउंटी क्रिकेट खेलने इंग्लैंड गए थे.
खेल किसी भी देश की तरक्की का अहम हिस्सा होता है और किसी भी देश में प्रतिभा की कमी नहीं होती है. यह दुखद है कि पैसों की कमी दुनिया को भविष्य के बेहतरीन खिलाड़ियों से वंचित कर देती है. लेकिन हमारे पास ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने लाख मुसीबतों के बावजूद हार नहीं मानी और दुनिया के लिए एक मिसाल बन गए.