India@75: आज़ादी की लड़ाई में शामिल रहीं इन गुमनाम वीरांगनाओं को देश का सलाम

Updated : Aug 21, 2021 14:06
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Editorji News Desk

देश अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. सालों से जारी ब्रिटिश शासन की गुलामी से आजादी पाना आसान बिलकुल भी नहीं था, इस आजादी की कहानी कई त्याग और बलिदान के किस्सों से भरी हुई है. देश के स्वतंत्रता संग्राम का पूरा इतिहास ऐसी साहसी शख्सियतों की कहानियों से भरा हुआ है जिन्होंने देश को गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए हर संभव संघर्ष किया और जरुरत पड़ने पर अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिए.

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आजादी की इस लड़ाई में भारत की महिला स्वतंत्रता सेनानियों की भी उतनी ही भूमिका थी जितनी पुरुषों की. चाहे वो रानी लक्ष्मी बाई हो, सरोजनी नायडू हो, झलकारी बाई हो या सुचेता कृपलानी, सभी ने ब्रिटिश हुकूमत के सामने ना झुक‌कर अपनी बहादुरी का परिचय दिया. लेकिन फिर भी आजादी की लड़ाई में शामिल कुछ महिलाएं ऐसी भी रहीं जिन्होंने आजादी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया, लेकिन इनकी शहादत गुमनाम रही. देश की आज़ादी के बाद उनके योगदान और नाम को लगभग भुला दिया गया.

आज हम उन्हीं कुछ गुमनाम और भूली-बिसरी वीरगंनाओं के साहस और जज़्बे को सलाम कर रहे हैं जिन्होंने हमारे देश का ना सिर्फ गौरव ही बढ़ाया बल्कि महिला सशक्तिकरण की कभी नहीं भूलने वाली मिसाल भी पेश की.

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तारा रानी श्रीवास्तव

बिहार के सारण में जन्मीं तारा रानी श्रीवास्तव ने अपने पति फुलेंदु बाबू के साथ भारत छोड़े आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया. फुलेंदू बाबू स्वतंत्रता सेनानी थे. देश को आज़ादी दिलाने के लिए वो हर कदम पर उनके साथ रहती थीं. जिस समय औरतों को चारदीवारी के भीतर रहकर अपना जीवन बिताना सिखाया जाता था, उस दौर में वो गांव-गांव जाकर औरतों को आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करती थीं.

‘करो या मरो आंदोलन’ के दौरान अपने पति के साथ तारा रानी सीवान थाने पर झंडा फहराने के लिए भारी भीड़ इकट्ठा करने में सफल रहीं, यहां तक कि जब पति फुलेंदु को गोली लगी तब भी तारा रानी ने उनके घावों पर पट्टी बांध दी और निर्भीक होकर पूरे साहस के साथ आगे बढ़ती रहीं

कैप्टन लक्ष्मी सहगल

कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जन्म मद्रास में हुआ था. उन्हें हमेशा एक उत्साही स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद किया जाएगा. साल 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेज़ों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया तब उन्होंने घायल युद्धबन्दियों के लिये काफी काम किया. जुलाई 1943 में जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस सिंगापुर आए तो डॉ. लक्ष्‍मी भी उनके विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकीं और आखिरकार उन्होंने नेताजी से खुद को भी शामिल करने की इच्छा जाहिर की. लक्ष्‍मी के टीम में शामिल होने के साथ ही आज़ाद हिन्द फौज़ की पहली महिला रेजिमेंट बनी जिसका नाम रानी झांसी रेजिमेंट रखा गया.

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राजकुमारी गुप्ता

राजकुमारी गुप्ता का जन्म कानपुर में हुआ था और उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद के साथ मिलकर काम किया. उन्होंने काकोरी लूट में एक अहम भूमिका निभाई और ये आप ही थीं जिन्होंने बंदूकें, रिवॉल्वर और यहां तक ​​कि संदेशों की सही से भेजे जाने में मदद की थी.

मातंगिनी हाज़रा

मातंगिनी हाजरा का जन्म पश्चिम बंगाल में तमलुक के पास होगला नाम के गांव में हुआ था. वो भारत छोड़ो आंदोलन और असहयोग आंदोलन दोनों में सक्रिय रहीं थीं. एक मार्च के दौरान, गोली लगने के बाद भी वो चलती रहीं और साथियों का हौसला बढ़ती रहीं.

इन सभी वीरांगनाओं ने स्वतंत्र भारत के सपने को पूरा करने में अपनी पूरी जी जान लगा दी, प्रसिद्धि और मान्यता की परवाह किए बिना वो ब्रिटिश राज से हर मौके पर लोहा लेती, उस से जूझती और जीतती नजर आईं. आज़ादी के 75 साल बाद आज उनका किया हर प्रयास, हर त्याग हमारे दिलों में उनके प्रति सम्मान और गर्व की भावना को बढ़ा रहा है.

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