India@75: देश को आजाद हुए 74 साल हो गए हैं. आजादी की जंग में देश के हजारों लोगों ने हंसते हंसते अपनी जान दे दी थी, कभी ये परवाह किए बिना की उन्हें याद किया (Unsung heroes) जाएगा या नहीं. देश के लिए दी गई हर शहादत उतनी ही महत्वपूर्ण है. तो आइए आजादी के 75वें बरस में आपको मिलाते हैं कुछ ऐसे नायकों से जिनका देश कर्जदार है. गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने में उनका रोल भी बेहद अहम रहा है. उन्होंने भी देश के लिए हंसते-हंसते अपनी जान दे दी थी, लेकिन उनके नाम इतिहास के पन्नों में धुंधले हैं. तो जानते हैं आजादी के ऐसे ही कुछ नायकों के दिलचस्प और जाबांज किस्से.
सूर्यसेन (मास्टर दा) – पेशे से शिक्षक, चेहरे से भोले भाले दिखने वाले सूर्यसेन (Suryasen) हाव भाव से उलट एक तेज तर्रार क्रांतिकारी थे. मौजूदा बांग्लादेश में जन्मे सूर्यसेन ने अंग्रेजों की चूलें हिला दी थीं. अंग्रेज सूर्यसेन से इस कदर खौफ खाते थे कि उन्हें बेहोशी की हालत में ही फांसी पर लटका दिया था और उनके शव को बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया.
शिक्षक होने के नाते युवाओं के बीच ‘मास्टर दा’ के नाम से मशहूर सूर्यसेन ने नौजवानों के साथ मिलकर एक क्रांतिकारी दल युगांतर पार्टी बनाई थी. मास्टर दा ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए गुरिल्ला युद्ध की तकनीक का उस जमाने में सहारा लिया था, जो काफी नया था. उनकी ये तकनीक अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गई थी.
उन्होंने दिन-दहाड़े 23 दिसंबर, 1923 को बांग्लादेश के चटगांव में असम-बंगाल रेलवे की ट्रेजरी ऑफिस को लूटा. चटगांव में अंग्रेजों का हथियार घर लूट कर मास्टर दा ने गोरों की सरकार को हिला दिया था. इसके बाद से ही अंग्रेज सूर्यसेन के खून के प्यासे हो गए थे. अंग्रेज सरकार ने सूर्यसेन पर 10 हजार रुपये का इनाम घोषित कर रखा था. जिसके लालच में सूर्यसेन के एक साथी नेत्रसेन ने उनके साथ गद्दारी की और पुलिस से उनकी मुखबिरी कर दी. जिसके बाद अंग्रेजों ने सूर्यसेन को गिरफ्तार कर लिया. बताया जाता है कि मास्टर दा सूर्यसेन को फांसी पर चढ़ाने से पहले अंग्रेजों ने उन्हें असहनीय यातनाएं दीं, ताकि फांसी के तख्ते पर वो वन्दे मातरम् ना बोल सकें, लेकिन अंग्रेजों की वो तमन्ना पूरी नहीं हुई.
आजादी के इस हीरो सूर्यसेन का नाम अब यादों के अक्स में धुंधला सा गया है, इसलिए हमने उन्हें खासतौर से याद किया है.
जतिंद्रनाथ मुखर्जी (बाघा जतिन)- एक बलशाली युवा तुर्क जिसे देख अंग्रेज अपना रास्ता बदल लिया करते थे. उनकी बहादूरी की खूब चर्चा हुआ करती थी. कहते हैं कि उन्होंने अकेले एक बाघ को अपनी खुखरी से मार गिराया था, जिसके बाद से ही लोग उन्हें बाघा जतिन (Bagha Jatin) के नाम से पुकारते थे. उनकी मौत पर अंग्रेज़ी हुकुमत ने जश्न मनाया था.
सन् 1900 में उस वक्त के सबसे बड़े क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति की स्थापना में जतिंद्रनाथ ने अहम भूमिका निभाई. क्रांतिकारियों के लिए धन जुटाने का सबसे आसान और प्रमुख साधन था भारतीयों से लूटे गए अंग्रेजी हुकूमत के पैसे की डकैती. बाघा जतिन ने अपने साथियों के साथ मिलकर ऐसी कई डकैतियों को अंजाम दिया जिसके बाद से वे अंग्रेजों के रडार पर आ गए. 1905 में ब्रिटेन के राजकुमार प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत दौरे पर उनके स्वागत जुलूस में उनके सामने ही बाघा जतिन ने अंग्रेज सिपाहियों को पीट दिया था. सिलीगुड़ी रेलवे स्टेशन पर बाघा जतिन के साथ अंग्रेजों ने बदतमीज़ी की तो मिलिट्री ग्रुप के 8 जवानों को अकेले ही बाघा जतिन ने पीट डाला.
कलकत्ता में उन ही दिनों जर्मनी के राजा की यात्रा हुई. नरेन भट्टाचार्य के साथ जतिन भी उनसे मिले और उनसे इस बात का वादा लिया कि हथियारों की बड़ी खेप की सप्लाई उनके विद्रोह के लिए जर्मनी सप्लाई करेगा. लेकिन एक चेक जासूस की वजह से बाघा जतिन का ये प्लान फेल हो गया था, और अंग्रेज उन्हें बेसब्री से ढूंढने लगे. कहते हैं कि अगर जर्मनी से हथियारों की खेप जतिन के हाथ लग जाती तो देश अंग्रेजों के चंगुल से तभी आज़ाद हो जाता. सुराग मिलते ही बाघा जतिन और उनके साथियों को पुलिस ने घेर लिया. मगर यतीश नाम का एक क्रांतिकारी बीमार था, जिसे छोड़ जतिन जाना नहीं चाहते थे. चित्तप्रिय नाम का क्रांतिकारी भी वहीं मौजूद था. दोनों तरफ से फायरिंग हुई. चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गए. वीरेन्द्र और मनोरंजन नाम के 2 क्रांतिकारी भी मोर्चा संभाले हुए थे. इस बीच जतिन का शरीर गोलियों से लहूलुहान हो चुका था. गिरफ्तारी देते वक्त जतिन ने कहा- ‘गोली मैं और चित्तप्रिय ही चला रहे थे. बाकी के तीनों साथी बिल्कुल निर्दोष हैं.‘ अगले दिन बाघ को हराने वाले जतिन बालासोर हॉस्पिटल में मौत से हार गए. जतिन कहा करते थे ‘आमरा मोरबो, जगत जागबे’ यानी ‘हमारे मरने से देश जागेगा’. देश को जगाने वाले ऐसे योद्धा बाघा जतिन का नाम आज इतिहास की स्याही में बेहद हल्का रह गया है.
बिनय, बादल, दिनेश- 3 कॉमरेड जिन्होंने मिलकर अंग्रेजों को ये सोचने पर मजबूर कर दिया, कि अब भारत को कैद करके रखना आसान नहीं होगा. 23 से भी कम उम्र के इन 3 युवाओं ( binoy, badal dinesh) ने कुछ ऐसा कर दिया कि अंग्रेजी सल्तनत हिल गई. अंग्रेजों को समझ आने लगा कि भारतीयों से पार पाना अब मुश्किल होगा.
8 दिसंबर 1930, सर्दी का दिन. मगर बिनय, बादल और दिनेश ने कलकत्ता के अंदर गर्मी बढ़ा दी थी. कलकत्ता उस समय तक अंग्रेजों की राजधानी हुआ करता था. लाल बाजार के पास मौजूद राइटर्स बिल्डिंग को अंग्रेजों ने अपना प्रशासनिक केंद्र बना रखा था. रोजमर्रा का सा दिन था, लोग सामान्य तरीके से आ जा रहे थे. तभी 3 युवा, जिनमें से दो 22 साल के थे और एक मात्र 19 बरस का, राइटर्स बिल्डिंग में दाखिल हुए और शांति को इस कदर चीरते हुए पहुंचे कि आज भी राइटर्स बिल्डिंग में उनकी धमक की चर्चा होती है. तीनों ने तय किया था कि जो भी हो वो सिम्पसन को मौत के घाट उतारकर ही दम लेंगे. यूरोपियन सूट पहने तीनों नौजवान राइटर्स बिल्डिंग में दाखिल हुए और सिम्पसन को देखते ही गोली मार दी. सिम्पसन वो जेलर था जो अपनी जेल में आने वाले भारतीयों को यात्नाएं दिया करता था. सिम्पसन को गोली मारते ही पुलिस वालों ने तीनों कॉमरेड को घेर लिया. बादल ने पोटैशियम साइनाइड खा लिया तो दिनेश गुप्ता और बिनय बासू ने खुद को गोली मार ली. भारत मां के इन 3 सपूतों में से दिनेश बच गए जिन्हें अंग्रेजों ने फांसी की सजा सुनाई.
इन तीनों के सम्मान में राइटर्स बिल्डिंग के ठीक सामने मौजूद डल्हौजी स्कवॉयर को बीबीडी बाग यानी बिनय बादल दिनेश बाग नाम दिया गया. लेकिन वक्त बीतने के साथ इतिहास के पन्नों में इन तीन जाबांज युवाओं की कुर्बानी भी कहीं खो सी गई है.