Model Code of Conduct : कैसे बनी चुनाव आचार संहिता? क्यों आसानी से नेता कर बैठते हैं इसका उल्लंघन?

Updated : Sep 11, 2022 12:36
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Editorji News Desk

5 राज्यों के चुनाव ( 5 State Assembly Elections ) में अगले हफ्ते से वोटिंग मशीन पर उंगलियां दबनी शुरू हो जाएंगी, उंगलियों पर स्याही लगेगी और लिखा जाएगा करीब 24 करोड़ लोगों की किस्मत का फैसला!

मैदान पर निष्पक्ष खेल के लिए कुछ नियम होने चाहिए. और हर खेल की अपनी रूल बुक, अंपायर और रेफरी होते हैं, लेकिन जब मामला यूपी चुनाव का होता है, तो सारे नियम डांवाडोल दिखाई देते हैं. चुनाव आयोग ( Election Commission of India ) द्वारा लागू और जांची गई आदर्श आचार संहिता ( Model Code of Conduct ) कितना काम कर रही है, यह एक बड़ा सवाल बन जाता है. यह संहिता है क्या और इसे भंग करना इतना आसान क्यों है?

मार्च 1950 में, पश्चिम बंगाल के नौकरशाह सुकुमार सेन ( Sukumar Sen ) को बेहद मुश्किल कार्य सौंपा गया. सेन को भारत का पहला चीफ इलेक्शन कमिश्नर बनाया गया. उन्हें 1.76 करोड़ लोगों के मतपत्र बनाने का कार्य सौंपा गया.

वह कामयाब रहे. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने मतदान में हिस्सा लिया.

10 साल बाद, केरल में चुनाव अधिकारी और राजनीतिक दल विधानसभा चुनावों के दौरान एकसाथ मिलकर चुनावी प्रचार के लिए क्या करना है और क्या नहीं करना है कि सूची तैयार करते हैं.

2 साल बाद, मुख्य चुनाव आयुक्त के.वी.के. सुंदरम ( V.K. Sundaram ) ने 1962 का लोकसभा चुनाव लड़ रहे सभी दलों से यह संक्षिप्त जानकारी साझा की.

देखें- UP Elections 2022: राज्य में क्या है मुस्लिम वोटों का सच?

यह सूची, नियमों का एक अनिवार्य नैतिक रूप, 'राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के मार्गदर्शन के लिए आदर्श आचार संहिता' के तौर पर जाना जाता है.

संहिता का विकास जारी रहता है. 1979 में, एक और सेक्शन जोड़ा जाता है जो 'सत्ताधारी दलों' के आचरण की निगरानी की रूपरेखा तय करता है.

लेकिन चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ( T. N. Seshan ) के सख्त शासनकाल में ढांचा बेहद मजबूत हो जाता है. शेषन के चुनावी सुधारों के बाद, संहिता को पहली बार 1991 के आम चुनावों में असरदार तरीके से लागू किया जाता है.

संहिता का अस्तित्व क्या है और यह कितनी प्रभावकारी है, 30 साल बाद हम इससे ही जूझ रहे हैं.

आखिरकार, यह नियमों की एक नैतिक रेखा है और जब लड़ाई यूपी-सिंहासन को पाने की होती है, तो कई नियम धराशायी हो जाते हैं.

सीधे शब्दों में कहें तो आदर्श आचार संहिता, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक दलों, उनके उम्मीदवारों और प्रचार करने वालों द्वारा पालन किए जाने वाले दिशा-निर्देशों का एक समूह है.

चुनाव आयोग द्वारा लागू और सुनिश्चित की गई यह संहिता, चुनाव की घोषणा के दिन से प्रभावी हो जाता है और औपचारिक तौर पर परिणाम घोषित होने तक प्रभावी रहती है.

8 प्रावधानों में विभाजित संहिता सामान्य आचरण, बैठकों, जुलूसों, मतदान के दिन व्यवहार, पोलिंग बूथ, ऑब्जर्वर, सत्ता पर काबिज पार्टियों के रेग्युलेशन और चुनाव घोषणापत्र से संबंधित है.

उदाहरण के लिए, सामान्य आचरण के तहत संहिता, उम्मीदवारों को ऐसी किसी भी गतिविधि करने से रोकती है जो समुदायों के बीच तनाव की वजह बन सकती है या तनाव को बढ़ा सकती है. यह वोट हासिल करने के लिए जाति या सांप्रदायिक भावनाओं से भरी अपील को भी रोकती है.

यह पार्टियों और उम्मीदवारों को ऐसे किसी भी आलोचना से बचने का निर्देश देती है जो उम्मीदवारों की निजी जिंदगी, अपुष्ट आरोपों या विकृतियों से जुड़ी हो. उम्मीदवारों को निर्देशित किया जाता है कि वे वोटर्स को लुभाने के लिए शराब न बांटे.

बैठकों और जुलूसों के लिए, संहिता यह निर्देश देती है कि पार्टियों या उम्मीदवारों को किसी भी बैठक के स्थान और समय के बारे में स्थानीय पुलिस अधिकारियों को समय पर सूचित करना चाहिए

यह सुनिश्चित करने के लिए कि मौजूदा सरकार, सरकारी तंत्र का शोषण न करे, संहिता मंत्रियों को किसी भी राजनीतिक दल या उम्मीदवार के हितों को बढ़ावा देने के लिए आधिकारिक मशीनरी, कर्मचारियों या परिवहन के साधनों का इस्तेमाल करने से रोकती है.

यह चुनाव के संचालन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल अधिकारियों के ट्रांसफर या पोस्टिंग को प्रतिबंधित करती है. सरकारी धन पर मीडिया और विज्ञापन का दुरुपयोग भी प्रतिबंधित करती है.

संहिता के मुताबिक, सत्ता चला रही सरकार, अगर कोई काम शुरू न हुआ हो, तो परियोजनाओं या योजनाओं के लिए कोई नई शुरुआत नहीं कर सकती है.

इसका उद्देश्य चुनावी कुप्रथा और भ्रष्ट गतिविधियों को रोकना है

एक महत्वाकांक्षी और कठिन लक्ष्य

उत्तर प्रदेश में 8 जनवरी से आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है. लेकिन 19 जनवरी तक ही, सिर्फ 11 दिन में ही, अलग अलग कैंडिडेट्स के खिलाफ आचार संहिता के उल्लंघन के 143 मामले दर्ज हो चुके थे

कांग्रेस के नदीम जावेद और समाजवादी पार्टी के इमरान मसूद शुरुआती नेताओं में से थे

संहिता के प्रभावी होने के 72 घंटों से भी कम समय में, 9 लाख से ज्यादा कैंपेन आइटम जैसे पोस्टर, बैनर, होर्डिंग आदि हटा दिए गए. 10,007 लाइसेंसी हथियार पुलिस विभाग के पास जमा कराए गए, 9 जब्त किए गए और 4 रद्द किए गए

आबकारी विभाग ने ₹15.58 लाख की 6,588 लीटर शराब जब्त की

यह जानकर क्या ऐसा लगता है कि चुनावी आचार संहिता सही काम करती है?

संहिता का उल्लंघन अपने दंडनीय अपराध नहीं है

पहला, संहिता का कोई कानूनी आधार नहीं है. संविधान के कानून का इस्तेमाल करके कुछ प्रावधानों को लागू किया जा सकता है

दूसरा, चुनाव आयोग के पास उल्लंघनकर्ताओं को दंडित करने की कोई न्यायिक क्षमता नहीं है

उदाहरण के लिए, मतदाताओं को रिश्वत देना भारतीय दंड संहिता के तहत अवैध गतिविधि और आचार संहिता का उल्लंघन दोनों है.

चुनाव आयोग, सिर्फ एक उम्मीदवार को रिश्वतखोरी में शामिल होने के आरोप में कारण बताओ नोटिस भेज सकता है. इसके बाद उम्मीदवार को चुनाव आयोग को लिखित में जवाब देना होगा कि वह आरोप स्वीकार कर रहा है या उसका खंडन कर रहा है.

अवैध गतिविधि को रोकने के लिए FIR ज्यादा प्रभावी है.

संहिता, अलग अलग उल्लंघनों के लिए सजा की गंभीरता को भी रेखांकित नहीं करती है. अभद्र भाषा के लिए 72 घंटे का प्रतिबंध या उससे कम? बिना परमिट के काफिले के लिए 24 घंटे या उससे ज्यादा?

साथ ही, एक बार परिणाम आने के बाद, चुनावी अपराधों के लिए मुकदमेबाजी करना मुश्किल हो जाता है

संहिता की इस स्वेच्छाकारी प्रकृति ने पार्टियों और व्यक्तियों को हमेशा बिना किसी नतीजे के डर के, संहिता का उल्लंघन करने के लिए प्रोत्साहित किया है.

इसके लिए क्या समाधान निकाला जाए, इसके जवाब में अक्सर संहिता को कानूनी स्थिति के रूप में बताया गया है, मतलब आदर्श आचार संहिता को कानून में बदलना

हालांकि, चुनाव आयोग हमेशा इसके खिलाफ रहता है - और उनके पास एक अच्छा तर्क है. किसी कानून के अधीन न होने से उन्हें 'त्वरित' कार्रवाई का फायदा मिलता है. वे न्यायपालिका भी हैं और कार्यपालिका भी हैं - इसमें विधायिका का न्यूनतम हस्तक्षेप रहता है.

लेकिन, क्या ये नैतिक दायित्व यूपी के चुनावी मैदान में काम करता है?

हम दोहराते हैं, एक महत्वाकांक्षी और कठिन लक्ष्य

हमारे देश में आदर्श आचार संहिता, चुनाव और लोकतंत्र की पवित्र प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाले सभी लोगों के राजनैतिक व्यवहार पर कुछ स्पष्ट नियम निर्धारित करती है - लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कई नेताओं को इस आचार संहिता पर फिर से अध्य्यन की जरूरत हो सकती है - शुरुआत शायद सीएम योगी आदित्यनाथ से की जानी चाहिए?

ये है चुनावी राज्यों की आचार संहिता. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 29 जनवरी को यह ट्वीट तब किया जब यूपी में चुनाव प्रचार चरम पर था.

मुजफ्फरनगर दंगे में हिंदुओं को बंदूकों से भूना गया था।
60 से अधिक हिंदू मारे गए थे और 1,500 से अधिक जेल में बंद किए गए थे।
गांव के गांव खाली हो गए थे।
सपा की यही 'पहचान' है।


2013 के मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर समाजवादी पार्टी पर हमला करते हुए, सीएम ने दावा किया कि दंगों में 60 से अधिक हिंदू मारे गए थे. ट्वीट में खुले तौर पर सांप्रदायिक लहजे के अलावा, इसमें तथ्यों के साथ भी खिलवाड़ किया गया. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, 2013 के दंगों में मुजफ्फरनगर में 52 लोगों की मौत हुई थी, जिनमें 37 मुस्लिम और 15 हिंदू थे. शामली और बागपत के आस-पास के इलाकों में कम से कम 10 लोग मारे गए.'' सितंबर 2013 में संसद में केंद्रीय गृह मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक, यूपी में उस वर्ष सांप्रदायिक हिंसा में 62 मौतें दर्ज की गईं. इनमें से 42 मुस्लिम और 20 हिंदू थे. इसके अलावा, आधिकारिक अनुमानों में बताया गया है कि दंगों के कारण 40,000 लोग विस्थापित हुए थे, इनमें ज्यादातर मुस्लिम थे.

यह मुख्यमंत्री का सिर्फ एक ट्वीट या बयान नहीं है जो साफ तौर पर आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करता है.

"अब्बा जान" जैसे बयान 
कब्रिस्तान पर बयान

जिन्ना पर बार-बार बयान

या यह 80% बनाम 20% का बयान, स्पष्ट रूप से चुनाव को हिंदू बनाम मुस्लिम के रूप में पेश कर रहा है.

मुख्यमंत्री साफ तौर पर मुस्लिम समुदाय और विरोधियों पर निशाना साधते हुए अपने सांप्रदायिक रुख के साथ आदर्श आचार संहिता का भी उल्लंघन कर रहे हैं.

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