स्वामी प्रसाद मौर्य (Swami Prasad Maurya) ने अपने समर्थकों के साथ अब समाजवादी पार्टी से रिश्ते की गांठ जोड़ ली है. 2017 के विधानसभा चुनाव में भी स्वामी के लिए काफी हद तक माहौल ऐसा ही था, बस मंच बदला हुआ था. तब चौखट बीजेपी की थी, और इस बार समाजवादी पार्टी की. स्वामी प्रसाद मौर्य अकेले होते तो बात होती, न तो वह बसपा से अकेले आए थे और न बीजेपी से अकेले गए. आखिर कौन हैं स्वामी के ये संगी साथी? सबसे पहले जानते हैं, स्वामी के इन्हीं सिपहसालारों को और फिर बढ़ाते हैं यूपी की राजनीति के इस सिलसिले को आगे...
पूर्व मंत्री धर्म सिंह सैनी, भगवती सागर (बिल्हौर कानपुर से विधायक)
विनय शाक्य (एमएलसी बिधुना अरायये और पूर्व मंत्री)
रोशन लाल वर्मा (विधायक शाहजहांपुर)
डॉ मुकेश वर्मा (विधायक सिकोहाबाद, फिरोजाबाद)
बृजेश कुमार प्रजापति (विधायक बांदा)
भगवती प्रसाद शाक्य
चौधरी अमर सिंह
ये तो बात हुई स्वामी प्रसाद मौर्य के भरोसेमंद साथियों की. आइए अब जानते हैं कि यूपी की पॉलिटिक्स में क्यों ज़रूरी हैं स्वामी? ऐसी क्या वजह रही कि 2017 में बीजेपी ने न सिर्फ इन्हें हाथों हाथ लिया बल्कि इनके चहेतों को टिकट भी दिया. जब संसदीय चुनाव आए तो स्वामी ने अपनी बेटी संघमित्र मौर्य को बीजेपी का टिकट दिलवाया और बदायूं सीट से सांसद बनवाया.
स्वामी क्यों दिखा रहे हैं कॉन्फिडेंस
स्वामी प्रसाद मौर्य (Swami Prasad Maurya) ने समाजवादी पार्टी जॉइन करने के दौरान दिए गए अपने भाषण में बीजेपी को उखाड़ देने की बात की. उन्होंने कहा कि मैं जिसका साथ छोड़ता हूं उसका कहीं अता पता नहीं रहता है. स्वामी के इस बयान की जड़ में मौर्य वोटों की वह संख्या है जिसका असर 100 सीटों पर बताया जाता है. काछी, मौर्य, कुशवाहा, शाक्य और सैनी जैसे उपनाम भी इसी समुदाय से संबंधित हैं. यूपी में 6 फीसदी के आसपास यह वोट हैं और यह संख्या प्रदेश में यादव और कुर्मी के बाद सबसे बड़े ओबीसी समुदाय की है.
इनका प्रभाव यूपी के कई जिलों में हैं. पूर्वांचल में गोरखपुर, मिर्जापुर, प्रयागराज, वाराणसी, देवरिया, बस्ती, आजमगढ़, अयोध्या मंडल की दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर मौर्य वोट निर्णायक भूमिका में हैं. बुंदेलखंड और बदायूं तक इस वोट का प्रभाव माना जाता है.
अखिलेश ने क्यों लिया हाथों हाथ?
Akhilesh के लिए स्वामी प्रसाद मौर्य क्यों जरूरी है, ये सवाल भी अहम है. दरअसल, 2017 में कांग्रेस जैसे बड़े दल के साथ गठबंधन का अंजाम अखिलेश यादव देख चुके हैं. 2022 के विधानसभा चुनाव में उनकी कोशिश छोटी छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ने की है. यूपी में 52 फीसदी पिछड़े वोट बैंक में 43 फीसदी वोट बैंक गैर यादव समुदाय से ताल्लुक रखता है.
ये वोट बैंक कभी एकजुट नहीं रहा. अखिलेश ने इसी वोट बैंक को अपने पाले में लाने के लिए कवायद महीनों पहले शुरू कर दी थी. जनपरिवर्तन दल, दलित महासभा, गोंडवाना समाज पार्टी, पिछड़ा वर्ग मोर्चा सहित कई दलों का विलय समाजवादी पार्टी में हो चुका है.
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा), जनवादी सोशलिस्ट पार्टी, महान दल, कांशीराम बहुजन मूल समाज पार्टी, पॉलिटिकल जस्टिस पार्टी और अपना दल (कमेरावादी) भी उनके साथ आ चुके हैं. लेबर एस पार्टी और भारतीय किसान सेना का विलय भी समाजवादी पार्टी (एसपी) में हो चुका है. समाजवादी पार्टी ने पश्चिमी यूपी में राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) से हाथ मिलाया है.
ऐसी ही कोशिशों में लगे अखिलेश भला स्वामी प्रसाद मौर्य का मौका कैसे छोड़ने वाले थे. स्वामी की जो मांगें हैं, वह निश्चित ही अखिलेश को माननी होंगी.
यूपी का रण अब और रोमांचक
अभी तक यूपी की लड़ाई में बीजेपी से थोड़ा पिछड़ती दिख रही है एसपी ने हाल में अपने कदमों से लड़ाई को कांटे की टक्कर में बदल दिया है. स्वामी प्रसाद मौर्य के एसपी में जाने से यूपी के समीकरण तेजी से बदले हैं. बीजेपी स्वामी के जाने के बाद हो सकने वाले नफा नुकसान के आंकलन में जुट गई है.