2022 यूपी चुनाव (UP Elections 2022) में चरण सिंह के पोते जयंत चौधरी जब अखिलेश यादव के साथ आए, तब बीजेपी खेमे में भी घबराहट मची. बीजेपी के माथे जाट वोटों की चिंता ऐसी बढ़ी थी कि दिल्ली में अमित शाह की जाट नेताओं (Jat Leaders) से मुलाकात में भी इसकी आहट सुनाई दी. आखिरकार नतीजों में सपा गठबंधन सत्ता से दूर ही रहा. आखिर क्या वजह रही कि पश्चिमी यूपी (Western Uttar Pradesh) में खास पकड़ रखने वाली आरएलडी के साथ होने के बावजूद अखिलेश की रणनीति विफल हो गई....? आइए जानते हैं
जाट खुलकर नहीं आए साथ : 2022 के चुनाव में जाट वोटर्स को अपने पाले में लामबंद करने के लिए अखिलेश ने कोशिश तो की लेकिन जाट समाज का एक बड़ा तबका दूर ही खड़ा रहा. इसकी बड़ी वजह से वह समीकरण हैं जो 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे (Muzaffarnagar Riots) के बाद बने थे. जाट किसान आंदोलन की वजह से बीजेपी से नाराज तो हुए लेकिन गन्ना भुगतान और अपराध में कमी जैसे मुद्दों उसे ज्यादा प्रभावित किया.
आरएलडी का जनाधार घटा : 2019 के आम चुनाव में अजित सिंह और जयंत चौधरी दोनों ही संसदीय चुनाव हारे थे. बीते विधानसभा चुनाव की बात करें तो 2017 में पार्टी सिर्फ 1 ही सीट जीती थी और चरण सिंह की सीट छपरौली से जीते वह विधायक सहेंद्र सिंह रमाला भी बाद में बीजेपी में ही शामिल हो गए थे. बीते कई सालों से पार्टी कोई खास करिश्मा नहीं कर पा रही है. ऐसे में जयंत के बूते सत्ता हासिल करने का दांव विफल रहा.
पश्चिम-पूरब के मुद्दे अलग : यूपी का पश्चिमी छोर, पूरब के छोर से काफी अलग है. मुद्दे, माहौल, राजनीति सब अलग है. पूरब में जहां किसान की जोत छोटी हैं, वहीं पश्चिम में बड़ी. पश्चिम में नहरों का जाल है, तो पूरब में इसकी कमी दिखती है. ऐसे में जयंत का सिर्फ एक खास इलाके तक सिमटे होना भी कोई खास असर नहीं डाल सका.
स्वयंभू छत्रपों से गठजोड़ : सत्ता पाने के लिए अखिलेश ने हरसंभव कोशिश की और इसी प्रयास में उन्होंने ऐसे क्षत्रपों से गठजोड़ कर लिया जिनका अपना जनाधार कितना बड़ा है, उसपर संशय था. ऐसे क्षत्रपों में Swami Prasad Maurya, Om Prakash Rajbhar भी हैं और Jayant Chaudhary भी... स्वामी प्रसाद मौर्य भी चुनाव हार चुके हैं और राजभर कितने प्रासंगिक रहें, ये अध्ययन का विषय है. जयंत भी इसी कड़ी का एक हिस्सा हैं.
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